पागलपन सा सवार था उस पर
न जाने क्या क्या कह गया
कुछ पता नहीं चला की किस से कह रहा है ये सब
माँ के आँख से निकला एक आंसू भी नहीं दिखा उसे
जब कुछ शांत हुआ तो एक पीड़ का एहसास
खाने लगा उसे
अपनी कही गयी बाते वापस लेना चाहता था
जैसे एक फोड़ा फूट जाता है और उसका मवाद
मन घिनौना सा कर देता है कुछ
वही एहसास उसके अंदर बढ़ता जा रहा था
गुस्से में कही बाते ,कह तो दी जाती है
पर उसका वजूद रह जाता है हमेशा के लिए
यही सोचते सोचते उसको नींद आ गयी
सुबह गीले तकिये को माँ ने धूप में सुखाया
और उसको गले लगा के बोली
बेटा चलो खाना खा लो.
3 टिप्पणियां:
बहुत ही मार्मिक कविता...
बहुत ख़ूब ,
नज़्मनसीहत आमेज़
शुक्रिया इस्मत आपा ...:)
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