बुधवार, 17 नवंबर 2010

ग़ज़ल

खुदा ने गर चाहा फूल खिलने लगेंगे सेहरा में
अभी कुछ और दुआ करने की ज़रुरत है...

तबियत सुधर जायेगी बस ये  समझो
ये जो आब-ओ-हवा है,बदलने की ज़रुरत है..

रास्ता पथरीला है फिर भी तय हो जाएगा
थोड़ा सा संभल के चलने की ज़रुरत है ..

मुझपे है क्या गुजरी ये समझने के लिए
तुम्हे ज़रा सा पिघलने की ज़रुरत है...

तुम भी खरे हो जाओगे तप के
थोड़ा सा आग में जलने की ज़रुरत है..

जान पहचान....

अजीब लगता है

उन रातों का बादल जाना
जिनसे मेरी जान पहचान थी

रोज़ मुझसे दुआ सलाम होती थी

आज कह रहे थे
वो किराए पे बसते हैं

मुझसे अब तक का हिसाब कराना चाहते  हैं

ऐसा भी होता है क्या कभी

हर चीज़ की कीमत कैसे मापी जा सकती है

मैंने भी हार नहीं मानी और उनसे लड़ पड़ा
जब ना जीत पाया तो मिन्नतें की

लेकिन वो भी कहाँ मानने वाले थे

चल दिए सब कुछ लेकर

हम भी क्या करते
हमने जीने के लिया कुछ दिन उधार ले लिए

# शाहिद

शुक्रवार, 5 नवंबर 2010

ग़ज़ल

हमसफ़र वो था जिसने सताया भी था
रोया जब मै था,उसने हँसाया भी था

भले कभी ना कहा कुछ, तो इसका क्या है ग़म
मुझे तो याद है कि कहने कुछ आया भी था

मेरी बातों को सुना ,मुझसे बातें क़ी सभी
उन्ही बातों को मेरे ख्वाब में दोहराया भी था

आज कुछ दूर है वो,कभी करीब था जो
मेरी आरजू मेरी जुस्तजू मेरा हम साया भी था

हुआ करते थे

प्यार और क्या है

बस एक आदत
जो पड़ जाती है

बिना देखे
जैसे चैन नहीं पड़ता

हर दिन आसान नहीं होता

वैसे ही उतार चढाव आते है

रोज़ की तरह

लेकिन फिर भी कौन कहता है
सांस लेने को

पर बिन लिए जिया भी नहीं जाता

कुछ वैसे ही
बदलना बहुत मुश्किल होता है

शाम होना भी एक आदत सी है हर दिन की
किसी किसी  दिन बहुत लम्बी हो जाती है

और कभी होती ही नहीं

कुछ वैसे ही जैसे नहीं दिखता वो
चेहरा जो हर रोज़ दिखता था

पुराने किस्से की तरह
सुनने में अच्छे लगते है

 उन को याद करके

वो भी क्या दिन हुआ करते
यकीन मानो

हुआ करते थे....

  # शाहिद