रविवार, 27 फ़रवरी 2011

अच्छा होता

कुछ रूठ के जाना भी 
अच्छा होता

गर मान भी जाते तो
अच्छा होता

हम बोल भी जाते
तो फिर क्या मतलब

वो सुन भी लेते तो 
फिर क्या होता

बहुत तकलीफ भी दवा के
माफिक है

ज्यादा ख़ुशी मिलती तो 
क्या बुरा होता

मुझे तो फ़िक्र है तुम्हारी
तुम्हे इस से क्या

तुम्हे बस इस से मतलब है
तुम्हारा क्या होगा

हर बार मुझे खुद से यही
कहना है पड़ता

जो मेरा है कभी तो वो
मेरा हुआ होता
   

गुरुवार, 24 फ़रवरी 2011

कुछ खिड़कियाँ

खुलने को होनी है अब कहीं

कुछ रास्ते 

मुड़ने से लगते हैं अब कहीं
  

शुक्रवार, 18 फ़रवरी 2011

एक जैसे मौसम होते 
एक सा दिन अपना होता

सच्चा होता ,झूठा होता 
आँखों में एक सपना होता

रातें होती ख्वाबों वाली
नींदों वाले दिन होते
बारिश होती रिमझिम रिमझिम 
उलझे सब पलछिन होते


गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

दीवानगी की हद से गुज़र जाना अच्छा
ज़िन्दगी जो रूठ जाए तो मर जाना अच्छा

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

वजह तो है....

गुज़र रहा
है वक़्त यहाँ
थम थम के

रुका रुका
बुझा बुझा
क्या हुआ यहाँ
क्या हो रहा

ना जाने क्यों
सब बदल रहा

कुछ जला नहीं
पर लगी है आग

बेसबब नहीं कुछ
वजह  तो है

मै जहाँ  रहा
ये वो शहर नहीं

कुछ पता नहीं
कुछ खबर नहीं

बस रुका रहूँ
और चलूँ नहीं

मेरे हाथों में कुछ
अब रहा नहीं

बेसबब नहीं कुछ
वजह तो है....

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

शौक़

शौक़ होता है हर किसी को
कुछ करने ,देखने का

ख़ुशी मिलती है
अपने दिल का करने की

दो घड़ी को

सारे बंधनों से दूर

दुनिया की झंझटो से दूर
उस थोड़े वक़्त में खुद के पास
खुद के लिए

अजीब सा सुकून मिलता है

अनचाही चीज़ें तो ढेर सारी मिलती हैं

पर चाहा हुआ सा कुछ
अलग ख़ुशी देता है

जैसे कुछ मिल गया हो कोई
नायाब मोती
समंदर में ढेर सारा वक़्त बिताने के बाद

डर

सहमे हुए से ख़यालात
आते हैं कुछ दिल में

दिल के एक कमज़ोर कोने से

पुरानी मिटटी की दीवार की तरह

जो कई सारी बरसातें झेल कर भी
खड़ी रहती है  सहमी डरी सी

गिरने का डर , टूटने का
बिखर जाने का


कहे तो सब है ज़माने से ना उलझा कीजे
समझ ना पाए हम ,आप समझे है तो समझा कीजे

ज़हर ये प्यार का घुल जाए जो नसों में फिर
दवा  कोई ना काम आएगी फिर क्या कीजे

जो खुद से हो ना पाए तो यही किया कीजे
किसी और के कंधे से गोली दागा कीजे

लोग मरते है यहाँ रोज़ फिर है क्या अफ़सोस
दिल खोल के फिर यहाँ जिया कीजे

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

ठहराव

गुमशुदा हो गया हूँ मै
कोई पता ठिकाना नहीं

कहीं बीच में हूँ

जैसे दरमियान में बहुत कुछ चल रहा हो
पर ओर छोर का कुछ पता नहीं

कहाँ शुरू हुआ था मै
कहाँ खत्म होगा ये सब कुछ पता नहीं

बस बीच में मै लटका हुआ हूँ
एक कठपुतली की तरह

थोड़ी देर को जब कभी लगता है
की यहाँ रुक जाऊंगा,ठहर जाऊंगा

अगले ही पल एक झोंका
उस जगह से बहुत दूर फ़ेंक देता है

और फिर वहाँ  भी पता नहीं चलता

कुछ भी
कोई निशानी नहीं

फिर से एक जगह जो शुरू जाने की कब
की हुई

पर इंतज़ार में थी मेरे

किसी कविता की एक लाइन की तरह

जो पूरी करती है उसे

और जब वो एक लाइन भी अपने आप
में पूरी कविता होता है अपने लिए

पर दरअसल वो बीच में ही है
पूरी करने के लिए

उसका वजूद उतना ही है

दो सिरों के बीच का ठहराव जितना
बस इतना ही...


कहाँ हूँ ?

बह जाऊं तो दरिया हूँ
दिख जाऊं तो चेहरा हूँ

 डूब जाऊं तो पत्थर हूँ
 उभर आऊं तो मै क्या हूँ?

जो लिख जाऊं तो किस्मत हूँ
टूट जाऊं तो शीशा हूँ

बिखर जाऊं तो पत्ता हूँ
सिमट जाऊं तो कहाँ हूँ ?


आओ

कभी जो राह बदल सको
तो मुड़ आओ

इधर उधर की सारी राहों से
दूर आओ

हंसो कभी खुल के ,कभी हौले से
मुस्कुराओ

हवा सा बह चलो तुम चाहे तुम जिधर
जाओ

कभी जो आ सको
तुम वापसी में घर आओ