शनिवार, 26 मार्च 2011

खुशियों के पर लग 
जाते हैं

वो हमारे चेहरों से उड़ के
दूसरों के चेहरे पे जाते है

और ऐसे ही चलते रहते हैं

क्यों न इन रंगों को 
यूँही फैलने दे

चारों तरफ 

थोड़ी खूबसूरत दुनिया हो 
जाए शायद उसके बाद


तुम भी हमे 
कभी कभी याद कर लिया करो

अच्छा लगता है
 

वो खोया हुआ सा मैं

डर लगता है अब परछाइयों से भी

हर वक़्त साथ चलती हैं मेरे 
कभी पीछा ही नहीं छोडती 

मै कहता भी हूँ
कि मुझे अकेला छोड़ दो

थोड़ी देर को 

ताकि मै देख पाऊं 
खुद को 
अपने वजूद को

मै ढूंढना चाहता 
वो खोया हुआ सा मैं
 

हैरान

ज़िन्दगी हैरान कर देती है कभी कभी

इतना कुछ बदल जाता है
कि पहचानना मुश्किल हो जाता है

क्या कल भी यही
कहानी दोहराई जायेगी

ये सवाल ज़िन्दगी के बारे में 
है पर जवाब 

मै भी नहीं ढूंढ पाउँगा.....

बुधवार, 23 मार्च 2011

तुम्हे कुछ सुनना नहीं 
मुझे कुछ बताना नहीं 

अजीब मुश्किल है जो महसूस तो करना है
शर्त ये भी है कि बताना नहीं


मुझे अंधेरों की तलाश है

मुझे अंधेरों की तलाश है,
घुप्प अँधेरा ,
काला बिल्कुल काला,

कुछ दिखाई ना दे जहाँ,
वहां देखूँगा मै !!

उस अँधेरे में
इक सूरज उगाऊंगा ,

फिर उसको आग लगाऊंगा,


मंगलवार, 22 मार्च 2011

मिटटी के पुतले

कुछ हादसे होते रहने चाहिए

बार बार लगातार
ताकि दिल में डर बना रहे 

वरना इंसान बेख़ौफ़ हो जाता है

खुदा से भी नहीं डरता 
उसे लगने लगता है
कि सब उसके हाथ में है

पर हम तो मिटटी के पुतले
हैं ना

गलतियाँ करेंगे
दोहराएंगे 

फिर थोडा सीखेंगे

गुरुवार, 17 मार्च 2011

बड़े उदास हुए हम तेरे ख्यालों में
कोई नशा न रहा अब इन प्यालों में 

कभी जो देखोगे तो महसूस होगा
हमे भी पाओगे दिलवालों में  

 

बुधवार, 16 मार्च 2011

कल

कल जो धडकने सुन रहा था 
तुम्हारे दिल की

तुम खामोश हो गयी थी कुछ पल को
उस दौरान कोई बात नहीं हुई

लेकिन शायद सबसे ज्यादा 
बातें हुई उस ख़ामोशी में 

सिगरेट के टुकड़े से 
अखबार में जो आग लगी थी

पानी भी नहीं मिला बुझाने को उसे
पर वो आग अच्छी लग रही थी
आसमान में चाँद दिख रहा था और ठंडी
हवाएं छू रही थी दिल को
तुम्हारे सवाल का जवाब नहीं था मेरे पास
 कि आदत क्यों ड़ाल रहे हो?

क्या बताऊँ और बहुत सारी चीज़ों
की भी तो आदत पड़ चुकी है
और तुम्हारी तो सबसे ज्यादा  


मंगलवार, 15 मार्च 2011

बुलबुलों की तरह

बुलबुलों की तरह 

हवा से भरे हुए
जो फूट जाते हैं

हल्का सा छूने से

पर उनमे से कुछ
पे जो उड़ पाते हैं 
थोडा सा 

सूरज की किरने 
अलग अलग रंग दिखाती हैं

ठीक हमारी ज़िन्दगी की तरह 

कभी हलकी सी चोट से भी
जान चली जाती है 

और कभी  
कुछ दिन बाद फिर से 
वापस पटरी पे आ जाती है


रविवार, 13 मार्च 2011

हर रोज़ जब मै 
मोबाइल रखी तुम्हारी 
फोटो देखता हूँ

तुम्हारे चेहरे की मुस्कान 
 अलग नज़र आती है 

जैसे मोनालिसा की पेटिंग
एक बात 
बस एक 
सीधी सपाट 

जुबान से कह 
देना 

आसान नहीं हो रहा 

ये डर नहीं है

पर आखिर कैसे 
और कहाँ से शुरू करूँ

उस दिन से जब 
पहली बार देखा था तुम्हे 

धानी कलर के टॉप में 
पहली बार

तुम्हारी आँखें 

उस दिन के बाद आज तक 
परेशां करती है मुझे 

मैं चाह के भी 
कुछ और नहीं देख पाता

हर जगह हर दिन 
तुम्हे ढूंढता रहता हूँ

देखता रहता हूँ खुद के पास

कई बार कोशिश की कहने की भी
पर हिम्मत जवाब दे जाती है
  
मैं हमेशा नहीं होने की 
वजह ढूंढता रहता हूँ

कभी कोशिश भी नहीं कर पाता

पर मै कहना चाहता हूँ

हम दोनों दो अलग दुनिया से हैं
 पर मुझे तुम्हारा साथ पसंद है

बहुत ज्यादा 

मै रहना चाहता हूँ 
तुम्हारे साथ हमेशा 

क्या ऐसा हो सकता है?
क्या तुम भी ऐसा कुछ सोचती हो
या ये सिर्फ मेरा वहम है

 मुझे नहीं मालूम 

पर मै अपने दिल पे इतना 
बोझ नहीं रख सकता 

मुश्किल है मेरे लिए 
जिंदगी भर इस उलझन में जीना

मै बस आज तुमसे यही कहना चाहता हूँ...

   

शनिवार, 12 मार्च 2011

मुश्किल है टाइम काटना भी

मुश्किल है टाइम काटना भी
कितना भी कोशिश कर लो

 जैसे वक़्त ही आपको काट रहा हो.

एक तलवार जो आपके गर्दन पे 
चल रही हो धीरे धीरे 

दर्द का एहसास कुछ वैसा ही होता है

बस फर्क इतना है कि
वहां जान तकलीफ से निकलती है
यहाँ घुट घुट के 
हौले हौले 

......

मुझसे क्यों पूछ रहे हो ?

 दिमाग में कुछ 
चल रहा हो तो कुछ
दिखाई नहीं देता

 ऐसा लगता है की
सब सीधे रास्ते पे चल
रहे हो और आप कहीं
जा रहे हों.
औरों से अलग

और जिस वक़्त ऐसा
होता है,

आपको एक   पहचान दे देते है लोग

एक बैज 

अजीब अजीब नजरो से 
देखते है

क्या हो गया इसे 
अच्छा खासा तो था 

एक नशा है जो 
काफूर हो जाएगा 

चंद दिनों में 

पर आपको लगता है
जैसे मुश्किल है होना ऐसा 

पर दो साल पहले और भी कई 
चीज़ें इतनी ही मुश्किल 

दिख रही थी

फिर फर्क क्या है
मुझसे क्यों पूछ रहे हो ?

गुरुवार, 10 मार्च 2011

पता नहीं
सच में पता नहीं
वजह  ज़रूरी है मगर 
फिर भी पता नहीं

क्या सचमुच पता नहीं
या कुछ मालूम है

हल्का सा कुछ

झुके कंधे , थकी आँखें 
है कैसा बोझ लिए तू घूम रहा

ज़रा देख कभी उस पार भी तो
वहां सारा आलम झूम रहा

दुनिया  के सारे लतीफों में
अपनी सूरत क्यों देख रहा

क्यों झूठ मूट के चक्कर में
यूँ सारा जीवन फ़ेंक रहा

कभी सोच ज़रा तकदीर का सच
तदबीर से आगे जाएगा

जो खोया तूने आज जो है
फिर वापस कब तू पायेगा

बस चलता चल आगे आगे
सपने मत देख जागे जागे