मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

धुआं

कैसे धुआं उठता है

कैसे 
जाने कैसे 

रह रह के उठता है मगर

कभी उस पार की
इंटें बनाने वाली चिमनी से 

कभी शाम को घर के चूल्हे से 

कभी खेतों में लगी आग से 

और कभी कभी दिल से भी उठता है
धुआं 

 न जाने कैसे

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

आखिर

ग़लत चीज़ें खींच लेती है अपनी ओर

क्योंकि उन्हें करने के लिए हिम्मत 
की दरकार होती है?
या वो बहुत आसान मालूम होती हैं?
 
या बस ऐसे 

कुछ सही करने में भी तो वक़्त लगता है

कितना कुछ चाहिए होता है
थोडा वक़्त और बहुत सारा ध्यान 

गौर करना पड़ता है बारीकियों पर

 लेकिन इस दरमयान 
पता ही नहीं चलता
कि आखिर हो क्या रहा है?

जुबां

मै उस जुबां में क्यों 
बोलना चाहता हूँ जो मुझे आती ही नहीं

सीखनी पड़ती है थोड़ी देर के लिए

मगर फिर भूल जाता हूँ

ज़रुरत मगर फिर भी आ ही जाती है

क्योंकि मै जो बातें 
ऐसे करता हूँ जैसे मुझे पसंद है 
 
तो वो लोगों को समझ नहीं आते

और कभी तो मुझे कुछ कहना ही नहीं पड़ता 
सुनना पड़ता है 

वही दोहराई गयी बात
नए तरीके से भी नहीं

बिलकुल वैसे ही पहले की तरह..

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

तुम मुझे शब् के अँधेरे में बुलाया न करो
रात भर मेरे खवाबों में यूँ आया न करो
 ....
लगा के आग क्यों कहते हो है नहीं जलना 
गर यही बात है ये आग लगाया न करो

कभी जो शाम ढले ,ज़िन्दगी उदास होगी
मगर कसम है मुझे ऐसे पाया न करो

.....

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

दीवार

कभीं दीवार भी कह उठती है 
ऐसा मत बोलो

मेरे कान तो होते हैं 
पर वो ये सुन नहीं सकते

हज़ार बार सही  हैं
और एक बार नहीं

वो बीमार तो है पर कहता है 
बीमार नहीं

कुछ दाग लगे हैं 
मगर वो धुल नहीं सकते 


रविवार, 17 अप्रैल 2011

........................

अँधेरे कमरे 

में बैठे बैठे

चार बातों से लड़ बैठता हूँ

दो मुझसे रूठ के चली जाती हैं
दो मुझे मनाने लग जाती हैं


शनिवार, 16 अप्रैल 2011

पसंद नापसंद के वजूहात 
ढेरों हो सकते है कभी कभी 

और कभी एक वजह भी नहीं होती 

सिर्फ दिल में एक आवाज़ होती है 

जो पहले कभी दबी दबी सी थी 

अब अचानक वही चीज़ 
जोर जोर से चीखने लगती है 

.........

कागज़

बहता रहता हूँ मै

अपनी कुर्सी पे बैठे बैठे

मेरी मेज़ पे बिखरे कागज़ 
उड़ते हुए जाना चाहते हैं

जैसे आजाद होना चाहते हों

मै उन्हें मोड़ कर
रद्दी की टोकरी में ड़ाल देता हूँ

जैसे कुचल देता है तूफ़ान 
रास्ते में आने वाली हर चीज़ को

मेरी कलम के रंग उन कागजों से 
झाँक कर मुझे मुँह चिढाते हैं

हर घडी 
हर पल

जादू करते रहते हैं  

क्यों करते है?
तुम्हे कुछ पता है क्या?


जागना पहले मुझे कभी इतना 
बेहतर नहीं लगा
 
खुली आँखें थकी थकी सी 
अच्छी लगती हैं

जैसे इंतजार हो 
कभी न ख़तम होने वाला इंतज़ार
 

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

लोरी

रात को जब नींद नहीं आती

अजीब अजीब सपने आते हैं

घने जंगल में 
किसी के चीखने के सपने 

धूल भरी आँधियों के सपने
तपते सूरज में जलने के सपने

फिर वो चले भी जाते हैं

जैसे मकसद सिर्फ मुझे डराना हो

 मुझे डर भी लगता है उस वक़्त
बहुत ज्यादा 

मगर फिर आंधियां रूक जाती 
चीखने का शोर थम जाता है

तपता सूरज ठन्डे चाँद में तब्दील हो जाता है

और फिर मुझे नींद आ जाती है...

भला ऐसी लोरी
मुझे रोज़ क्यों सुननी पड़ती है


जो बिलकुल भी मीठी नहीं लगती...
पता है आज बहुत बुरा दिन है

इतना बुरा कि क़यामत भी शरमा जाए

मगर बस फर्क इतना है कि आज का दिन हमेशा 
नहीं रहने वाला

कल फिर सुबह होगी 
 

कुछ नहीं

अब मै कुछ
नहीं कहूँगा 
कुछ भी नहीं 
एक लफ्ज़ भी नहीं निकालूँगा

क्योंकि अलफ़ाज़ परेशान करते हैं

छीन लेते चैन 
सुकून 
दिल का आराम 

न जाने क्यों रात भी आती है

हर वक़्त दिन होता तो
कमी नहीं महसूस होती  

तपता सूरज कुछ और सोचने नहीं देता
कुछ और कहने नहीं देता
मगर फिर ज़ुबान चुप कहाँ रह सकती है

मै कुछ नहीं कहना चाहता मगर फिर भी
कुछ लफ्ज़ फिसल कर उस किनारे चले जाते हैं

लेकिन अब मै कुछ नहीं कहूँगा
कुछ नहीं

...................
बस 

अब और नहीं

जितना सोचा था ये उस से 
ज्यादा मुश्किल है

ये वैसा ही है जैसे आग में जलना 
रोम रोम में जलन महसूस होती है
पानी डालने पे भी ये जलन नहीं जाती

 बस 

अब और नहीं 


मंगलवार, 12 अप्रैल 2011

................................

ये वक़्त जब कोई 
बात नहीं हो रही होती

ऐसा लगता है कि बीच समंदर में 

जहाँ बिलकुल कोई हलचल नहीं 
मेरा जहाज़ आकर रुक गया है

फिर अचानक से जहाज़ का इंजन 
शुरू होता है 

एक थर थर कि आवाज से 
वो पानी को चीरते हुए फिर वापस 
चलने लगता है
कुछ वैसे ही दिल कांपते कांपते 
फिर से धड़कने लगता है
और साँसें बिलकुल पहले जैसी 
मालूम होने लगती है


नाम

कुछ नाम है मेरे पास

जिनका कोई मतलब नहीं 

आम तौर पर बेमतलब के नाम 
नहीं  होते 

वो तो रखे ही ऐसे जाते हैं 
जिनका कुछ मतलब हो

ऐसे जिन्हें रखने से असर पड़े

नेक लोगों के नाम पे
अच्छे  हौसलों के नाम पे
पर इस से कुछ असर पड़ते 
मैंने नहीं देखा कभी
 
हाँ 
लोग नाम की तौहीन करने में 
आगे रहते हैं ज़्यादातर

जैसे कल अब्दुल चौराहे  पे खड़े हो के 
गालियाँ बक रहा था

या वो राम जो शराब के नशे में 
अपनी बीवी को पीट रहा था

मै ये नाम

नीलाम कर दूंगा 

किसी अबस्ट्राकट पेंटिंग 
की तरह जो आजकल 
महंगे दामों में बिक जाती है
     

टूटे हुए मकान

कल रास्ते में मिल गया था मुझे

उस टूटे हुए मकान के बरामदे में
जहाँ अब कोई आता जाता नहीं

मै  घंटो वहां  बैठा रहता था पहले

तब उस मकान की टूटी ईंटे
बातें करती सी मालूम होती थी

वो कल शायद कुछ ढूंढते हुए वहां 
आया था

मुझे देख कर चौंक सा गया

थोड़ी देर तक कुछ भी नहीं बोला 
फिर पास आकर बैठ गया 

पूछने लगा   

हाल चाल 

बिलकुल अपनों की तरह जिनसे 
काफी वक़्त बाद मिलना हुआ हो

बहुत देर बैठ कर उस से बातें की 
जब वो जाने को हुआ तो 

कहने लगा की ये घर मेरा हुआ करता था

अब हम शहर के दूसरे सिरे में रहते हैं 

पर जाने क्यों मेरी रूह यही अटक गयी है
उसे ही ढूँढने चला आता हूँ

आज तुम्हे देखा तो लगा 
उसे भी कोई साथी मिल गया है

अब शायद मै सुकून से रह सकता हूँ
 

मुमकिन

मुझे नफरत है तुमसे 

इस वजह से नहीं की तुम में 
बुराइयाँ हैं बल्कि इस वजह 
से की मै एक भी ढूंढ नहीं पाता तुम में

तुम क्यों चारों तरफ फैले रहते हो

कभी दीवार पे नज़र आते हो
कभी खिड़की के उस पार दिखाई देते हो

कभी जो चाँद देखूं तो उसमे भी दिखते हो
कभी मेरी मेज़ पे रखे सूखे फूल में नज़र आते हो

मै नफरत करता हूँ 
क्योंकि तुम कभी दूर होते ही नहीं
पर ये पूरा सच तो नहीं 

तुम तो बहुत दूर हो

इतना की वहां पहुचना
इस जनम में तो मुमकिन भी न हो शायद


सोमवार, 11 अप्रैल 2011

बेकरारी

बेक़रार 
फिरते रहते हैं 
इन फिजाओं में 

जैसे कोई मुरझाया फूल
 फिर से खिलने की उम्मीद रखता हो

शायद कोई दवा ऐसी हो
जिसके पड़ने से  कुछ सूखे पेड़

भी फिर से वापस वैसे हो जायेंगे 
जैसा वो बहार के समय  हुआ करते थे

वरना फिर ये पेड़ 
 ये पेड़ वैसे ही रह जाते हैं जिनपे 
चिड़ियाँ अपने घोंसले बनती है

या फिर कोई लकडहारा

उसे काट कर 
किसी के घर के दरवाज़ों में लगा देगा

 पर ये बेकरारी 
कभी खत्म तो होगी 

पर तब तक शायद 
बहुत देर हो जाए
......

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

हद

हद 
बहुत मुश्किल है मापना 

अपनी हद से बाहर इंसान कब चला 
जाता है उसे पता भी नहीं चलता

 कल तक जो चीज़ हद से बाहर 
थी 
अब वो आम बात हो गयी है

साथ ही कुछ नयी हदें बन आई हैं 

जैसे कोई बाधा दौड़ हो
जिसमे एक के बाद एक
नयी मुश्किलें 
आप पार करते रहें 


शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

अफ़सोस

मेरे रास्ते अब मुझ से 
कहते है इतना तेज़ न चलो

इतना तेज़ नहीं की कुछ देख न पाओ
कितने मोड़ पीछे छूटे जाते हैं
    
कितने ख्वाब मुड़े जाते हैं
उन्हें खोल के देखो 

पढो उन्हें ,समझो उन्हें
थोडा महसूस करो

यूँ न करो 
कि देख के उन्हें अनदेखा कर दो

वरना वो भी एक दिन ऐसा ही करेंगे 

और उस दिन
सिवा अफ़सोस के तुम कुछ नहीं कर पाओगे...