मंगलवार, 10 मई 2011

कविता

तुम अपने दिल की बातें कभी तो कहते हो

मगर सिर्फ पूछने पर

खुद आकर नहीं कहते कि
तुम्हे पता है, आज ऐसा हुआ!

ऐसा कहने पे जो आँखों में चमक होती है
वो कहीं नहीं मिलती

जैसे कोई गहरी राज़ की बात
सुना रहे हो

पहले शायद तुम कहा करते थे

पर पहले तो तुम और भी बहुत कुछ किया करते थे 
जो अब नहीं करते 

तुमने बताया नहीं क्यों?

और हमने पूछा भी नहीं

क्योंकि आज कल तुम 
सिर्फ पूछने पे बताते हो
   
तुम जो खोये-खोये रहते हो

अच्छा नहीं लगता,

सोमवार, 9 मई 2011

ग़ज़ल

चलते फिरते मिलने के लिए कुछ बहाने ढूंढें
अपना ग़म भुलाने को कुछ दोस्त पुराने ढूंढें 

कुछ दूसरों की ग़लतियों से सीखा हमने 
सबक सीखने को कुछ और दीवाने ढूंढें

कभी जो पास थे तो ज़माने को ठुकराया हमने 
अब वापस खुद के लिए हम फिर से ज़माने ढूंढें 
 

ग़ज़ल

सदायें अब भी आती हैं कहीं दिल के कोनो से 
मै उन्हें रोक के कहता हूँ मुझे कुछ दूर चलना है

बुझा दिल है दबी आहें मेरी साँसें भी कहती हैं
बहुत मुश्किल सफ़र है और मुझे कुछ दूर चलना है

कभी रातें कभी कुछ दिन कभी शामें भी ढलती हैं
आज आई सुबह है और मुझे कुछ दूर चलना है

भुला के कब किसी को यहाँ कोई याद आया है
तुम्हे फिर भूल जाने को मुझे कुछ दूर चलना है
 
क्यों पसंद है मुझे कुछ

क्या सिर्फ इसलिए कि 
वो मुझे पसंद है हमेशा से

या फिर वो मुझे धीरे धीरे 
अपने पास खीचता चला गया
 

सही -ग़लत ........

हम समझ नहीं पाते कीमत कुछ बातों की

या शायद उस वक़्त हम वही करते हैं
जो सही लगता है

पर फिर क्यों कुछ देर बाद वही 
बात ग़लत लगने लगती है

क्यों कुछ फैसले हमेशा के लिए
सही नहीं हो सकते 

ऐसे जो पहले भी सही थे
आज भी सही लग रहे हों

और आगे भी उनपे कोई अफ़सोस न हो
     
कोई चीज़ जो आपसे जुड़ गयी हो
 वो चाह के भी  छूट नहीं सकती

आप उस को दूर छोड़ के आना 
चाहते हैं जहाँ से वो आप 
तक आने का रास्ता भूल जाए 

 पर वो ढूंढ ही लेती है रास्ता 
उन तमाम रुकावटों को पार करके
वो वापस आपकी चौखट पर आ जाती है

अबकी बार उसे वापस छोड़ना मुनासिब नहीं लगता 

आप दरवाज़ा खोल उसे अन्दर आने देते हैं

  
क्यों जो नहीं बोलता 
उसकी बात नहीं सुनी जाती

 

सोमवार, 2 मई 2011

हमसफ़र

हमसफ़र तू न सही
ख्वाब तो पूरे होंगे,

चमन में खिलेंगे फूल
फ़िज़ा महकेगी,

कोई तारा भी तो चमकेगा
गगन में फिर से ,

फिर से कोई ख्वाब
चरागों में रोशन होगा।

बदले मौसम में बहारों
के इशारें होंगे,

कुछ नए दोस्त भी
समंदर पे किनारे होंगे,

आइना फिर से
मुझे कह देगा
हकीकत मेरी ,

मैं अपनी कश्ती दरिया
में फिर से  उतारूंगा,

मेरा साहिल मुझे मिल
जाएगा
एक  न एक दिन मुझको

रविवार, 1 मई 2011

ग़ज़ल

बोलने के लिए कुछ बात बाक़ी है
दिन गुज़र गए हैं मगर रात बाकी है

बहुत कुछ दे गयी मुझे मगर ऐ ज़िन्दगी
तुझे देने को मेरे पास एक सौगात बाक़ी है

खुश्क मौसम से इतना खौफ मत खाओ
अभी आने को बहुत बरसात बाक़ी है

है सब कुछ ख़त्म हो गया फिर भी ऐ दिल 
रूह बाक़ी, जिस्म बाक़ी , मेरे जज़्बात बाक़ी हैं

 इन निगाहों को अपने महफूज़ रखो 
अभी कुछ होने को यहाँ वाकियात बाक़ी हैं


कहने के लिए चार दिन काफी है
जीने को

ज्यादा की ज़रुरत किसे है 

पर वो चार दिन भी कुछ ऐसे 
ही बीत गए हों 

तो मुश्किल है 


फासला

उन सब बातों पे जिनपे मै
बात करना चाहता हूँ 

वो तुम्हे पसंद नहीं

मै जब कोई बात पूछता हूँ 
वो सवाल तुम्हे पसंद तो आता है 

पर तुम उसका जवाब नहीं देते 
कुछ और कह देते हो 

तुम्हे लगता होगा की इस से बात 
ख़तम हो जाती है 

लेकिन ऐसा नहीं होता 

बल्कि एक फासला और बन जाता है