शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल,

बरसात इस बार, बहुत मुश्किल गुजरी है;
ज़िन्दगी फिर ग़मों में शामिल गुजरी है.

तेरी याद ही आई है, जब भी बैठे हैं;
कुछ इसी हाल में हर महफ़िल गुजरी है.

तुझको जब भी देखा, घायल ही हुए है;
तेरी हर अदा मुझपे तो कातिल गुजरी है.

मैंने हर बार उसे अजनबी समझ छोड़ दिया;
मेरे सामने हर बार जब मंजिल गुजरी है.

तुम उस हालत को कभी ना समझ पाओगे; 
तेरे जाने के बाद जो इस दिल गुजरी है.

-शाहिद

दस्तक

इस महीने 
बहुत याद आये हो तुम;

चाय की चुस्कियों में 
हर एक घूँट में 
तुमको पीना चाहा,

आँख बंद करके  
ख्वाबों में तुम्हे जीना चाहा

खुद से मजबूर होकर
खुद से दूरी रखी;

बहुत कोशिशों 
से तुम को भुलाना चाहा;

वो एक रात;
या एक दिन नहीं था 
जो था गुज़रा;

मेरी ज़िन्दगी की साँसों 
ने उसे दोहराना चाहा;

क्यों हर रात 
आ के मेरा घर उजाड़ देती है;

मेरे संभले हुए इस दिल को
फिसला देती है;

बहुत मसरूफ हूँ 
जहाँ के मसलो में मै;

ये सोच के जब भी मैंने
दिल को बहलाना चाहा;

तेरी यादों ने दस्तक दे 
के फिर आना चाहा.

-शाहिद

तू

तू हर्फ़-इ-नूर
तू एक स्याह रात भी है;
तुझसे रंज 
तुझसे शिकवा 
तुझसे शिकायत भी बहुत पर

तू ही एक दुनिया 
तू एक ख्वाब 
एक हसरत भी तू है;

तुझसे बेहतर कुछ भी नहीं 
मेरे पास शायद

इसलिए तुझ में खोना  
एक आदत सी हो गयी है;

मिल जायेंगे मुझको 
भी नए शेर नए मतलब

नयी ग़ज़ल तुम जैसी 
शायद मगर बन पाए न फिर मुझसे 

इस बात की ख़ुशी भी है 
तकलीफ भी बहुत

एक साँस को 
भी तुझसे छुटकारा नहीं मिलता;

जो खो गया एक बार
वो दोबारा नहीं मिलता;

-शाहिद

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

तुम्हारे शहर..

आधी रात 
को जब नींद बगावत करे

तो तुम्हारे शहर 
आने को जी करता है;

सोचता हूँ,
कि कैसे खुद 
को धोखा देना सीखते है लोग;

ये हुनर आसान नहीं दिखता;

पर सुनना उन बातों को
जो शोर में  चुप हो  जाते हैं दिल के

जैसे सुनसान 
शहर उनको भी बहुत पसंद हो;

पर तुम्हारे शहर में तो 
बहुत शोर है;

फिर क्यों तुम्हारा शहर 
अच्छा लग गया मुझको;

आधी रात के बाद 
दिन नया नहीं होता;

तारीख बदल जाती है;

लोगो के जन्मदिन कि मुबारकें 
एक एक कर के 
यहाँ वहां से सुनाई देती हैं;
पर इस शोर कि वजह से 
नींद को कोई शिकायत नहीं;

नींद के एक हिस्से को
इस भगदड़ से प्यार है बल्कि;

फिर जब नींद शिकायत 
करती है कि 

उसकी वीरानियाँ कहाँ है;
तो तुम्हारे शहर आने को जी करता है..


-शाहिद

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

अच्छा होता..

शाखों पे फूल खिल आये , 
मौसम भी कुछ बदल आया;

अफ़सोस इस बात का है मगर,

पिछली सर्दियों में,
कुछ दूर चल दिए होते 

तो अच्छा होता..

तूफ़ान भी थम गया है;
हलचल भी कम हो गयी;

अफ़सोस इस बात का है मगर,

पिछली बार किनारे पे,
तुम मिल गए होते 

तो अच्छा होता..

अँधेरा भी कम हो गया है;
रौशनी भी वापस आ गयी है;

अफ़सोस इस बात का है मगर,

पिछली चांदनी रात में ही ;
सितारे टूट गए होते तो अच्छा होता..

-शाहिद

नज़्म- हवा

हवा आ के
बतलाओ कभी ;

कि मुक़द्दर क्या है ,

क्या है तबियत;
हाल-ए-दिल क्या है,

हौसले क़ी चिड़िया 
उडती है कहाँ?

कहाँ लोग
ग़म में मुस्कुराते हैं.

किस शहर में इंसान 
परेशान नहीं;

और कहाँ मिलती है 
ज़िन्दगी जो आज़ाद रहे;

किसने ख्यालों को
बेड़ियों में क़ैद किया;

कौन नशे में 
झूट बोलता है;

और किसका सच है 
जो आसान रहा है उसपे 

हवा आ के
बतलाओ कभी;

ज़ज्बात क्या है
दर्द क्या है ,
सितम क्या है;

ज़िन्दगी क्या है;
गर ये सच है 
तो भरम क्यों है

लोग गर भूल जाते है
तो आँख नम क्यों हो;

हवा आ के बतलाओ कभी ;

जीने के मायने क्या है;
फासले क्या है,
मुश्किलें क्या है;
हवा आ के 
बतलाओ कभी;

कहाँ पे लोग 
आसान राह चुन सकते है;

कहाँ दीवारों के 
पास भी  दिल होते हैं

कहाँ पे पेड़ 
भी करते है अपनी मनमानी ;

कैसे जानवर इंसान 
बने फिरते हैं;

कैसे कोई टुकड़ो में जी लेता है;

किसका चेहरा छुपा नहीं 
है नकाब के पीछे;

हवा आ के 
बतलाओ कभी;

किस तरह 
रोज़ तुम ताजगी को लाती हो;
सुबह से कौन सा रिश्ता तुम्हारा;
राज़ क्या है जो 
बतलाते नहीं..

-शाहिद

शेर

जो बन सको न तस्वीर, तो आईना बनो;
एक नज़र काफी है ,देखने दिखाने को..


ग़ज़ल

दिन हर रोज़ क्यों एक सा ही रहता है;
कैसा दरिया है जो सूखता है और न बहता है...

उसकी आँखें पढने पे ही होगा दिल का हाल मालूम;
अब न वो कुछ कहता है,और न चुप रहता है..

खून दिल का भी सफ़ेद पड़ गया होगा;
जब लहूँ अश्क बन के यूँ आँख से बहता है..



रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल

फिर रात चाँद आया , मगर तुम नहीं आये;
सावन भी लौट आया, मगर तुम नहीं आये...
 
अरसे रहा था जिस ख्वाब, का इंतजार मुझको;
वो ख्वाब तो पूरा आया , मगर तुम नहीं आये...

अब न वो शहर रहा, न वो लोग "शाहिद";
वक़्त सारा गुज़र तो आया, मगर तुम नहीं आये...

मै मील के आखिरी पत्थर से भी पूछने निकला;
वो बोला लोग तो सब आये, मगर तुम नहीं आये..

तुम्हे दोस्तों में गिनूं की, करूं दुश्मनों में शरीक;
मेरे मरने पे तो सब आये, मगर तुम नहीं आये..

-शाहिद

ग़ज़ल

एक आरज़ू मेरे दिल से, निकाली न गयी;
सर पे मुश्किलें वो आई , कि टाली न गयी..

उसकी हर बात, मेरे दिल के पार हो ही गयी;
तीर जुबां से जो चलाये, वो खाली न गयीं.

इश्क एक आग का दरिया है, जिसे दूर से देखो;
जो फिसले है वहां उनसे ,हालत अपनी संभाली न गयी..
 
जो बर्बाद-इ-इश्क हैं, वो ही बताएँगे किस्सा अपना ;
जो दिल एक बार टूटा, हसरतें फिर नयी पाली न गयीं.

कितनी ही खुशियाँ खरीद लाये, जहान से तुम;
मगर न जाने क्यों , इस दिल से ये तंगहाली न गयी...


एक कहानी

मै लिखना चाहता हूँ

एक कहानी जिसके किरदार 
सच्चे हों ;

एक कहानी
जो हकीकत के पास तो हो;

मगर बुराइयों से दूर हो,
क्योंकि आजकल 
सच दिखाने का मतलब सिर्फ 
बुराई दिखाना रह गया है;

मै लिखना चाहता हूँ;

वो कहानी जिसका ख्याल
मुझे एक अरसे से है.

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

..

मुझे शौक़-ए-ग़ज़ल तूने ही सिखाया था मगर;
अब भूलना जो चाहूं, तो भुलाने नहीं देता.

तेरे किस्से, तेरे वादे , तेरी यादें भी छोड़ दूं;
मै सोचता हूँ रोज़, तो  होने नहीं देता.