शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

......

लफ़्ज़ों को बंधना नहीं पसंद है 
शायद,

ग़ज़लों में जब उन्हें बांधना 
चाहता हूँ,

तो वो धोखा दे दते हैं,

पानी की तरह नहीं बहते 
बर्फ की तरह अकड़  जाते है,


 मुझे नज्में पसंद हैं 
जिनका कोई 
पक्का रास्ता नहीं होता ,

वो तो बस बहती रहती हैं 
जिधर भी पानी 
का बहाव  उन्हें 
ले जाता  है।

वो उन संकरी गलियों से 
होकर भी गुज़र जाती हैं,
जहाँ ग़ज़ल की बहर 
 नहीं जा पाती,

ग़ज़लें एक निचोड़ लगती है,
जैसे उम्र भर 
की थकान 
मिटा रही हों 

....

...

न जाने किसलिए
 और न जाने 
कितनी बार पीछा छुड़ाना चाहा 

तुम्हारी याद पीछा नहीं छोडती है मेरा 

ज़ख्मों को कुरेदती रहती है;

नासूर बन गए है 
वो सारे लम्हे जो मुझसे 

ऐसे जुड़े हैं कि 
अलग नहीं होते कभी;

जागते
सोते
उठते 
बैठते 

बस वो मुड़  के  
चले आते है;

 याद दिलाने 
खुशियों भरे पल 

जो अब के खालीपन का एहसास 
ऐसे मन में भर देता है 

जैसे एक ज़हर 
भर गया हो नसों में 

जलने लगता है 
मेरा पूरा बदन 

एक अजीब सा 
बुखार 

जो न जाने कब 
उतरेगा 

......

ग़ज़ल,

तुमसे नज़रें मिला के देख लिया ;
हमने दिल को जला के देख लिया.

तुम मुझे अब भी याद आते हो;
हमने तुमको भुला के देख लिया।

अश्क आँखों से भी अब रूठ गए;
हमने खुद को रुला के देख लिया।