बुधवार, 27 नवंबर 2013

ग़ज़ल,

उनको करीने से सजा रखा है ,
ख्वाब जो सीने में दबा रखा है।

मंज़िल की खबर नहीं है अब कोई  ,
जाने उसको , हमने कहाँ रखा है।

हसरतें पाने कि अब नहीं कोई ,
हमने अबतक , बहुत गँवा रखा है।

दर्द से हमको अब नहीं शिकायत ,
हमने उसका नाम भी दवा रखा है।

कुरेदते क्या हो सीने में मेरे ,
अब इस राख में क्या रखा है।

सब कुछ लुटा दिया है हमने "शाहिद ",
अपने लिए कुछ, फलसफा बचा रखा है।



परिंदे

परिंदे आजकल बाहर शोर नहीं करते ,

पार्क  के किनारे वाला पेड़ कोई
काट के ले गया है।

वो आते हैं और घरोंदा
तलाश करके वापस लौट जाते है।

क्या कोई सोचता है वाक़ई
दूसरों के बारे में ,

लोग बस मशगूल हैं
जीने कि जद्दो जहद में ,

लेकिन ऐसा जीना भी क्या

जो दूसरों के जीने के
हक़ कि परवाह नहीं करता।

पुल

कभी कभी लगता है
ये पुल किसलिए बना  रहा हूँ ,

क्या ये पहुँचायेंगे मुझे उस पार

वहाँ जहाँ जाने से सफ़र की
थकान दूर हो जाती है,

क्या  होगा ऐसा कभी?

या फिर ये पुल कभी  पूरे 
ही नहीं  होंगे  ,

और मैं उन में से एक
अधूरे पुल के कोने पर खड़े होकर ,
उड़ जाऊँगा उस पार ,

वहाँ ,
जहाँ से कोई वापस नहीं आता।



मंगलवार, 12 नवंबर 2013

वक़्त क्या कुछ नहीं होता

वक़्त क्या  कुछ
नहीं होता  ,

जब अच्छा हो तो
नए और लाजवाब किस्सों
कहानियों का सबब बनता है,

जब बुरा हो तो कड़वी याद
बन कर ता-ऊम्र सबक
सिखाता रहता है,

मुश्किल हो
तो एक अच्छे दोस्त कि तरह
जीने के तरीके सिखाता है ,
देखने और समझने कि क़ूवत
पैदा करता है,

वक़्त जब गुज़रा हुआ
होता है, तो साये
की तरह साथ चलता है,

और आने वाला वक़्त सपने दिखता है,
ज़िंदगी में उम्मीद लाता है

एक वक़्त ही तो है
जो हमेशा साथ चलता है,

लोग पीछे छूट जाते हैं,
नए लोग शामिल हो जाते है,
पर वक़्त अपनी रफ़्तार से
कभी  तेज़ , कभी धीरे

हमारे सफ़र का गवाह बना रहता है,