रविवार, 28 दिसंबर 2014

मेरी उम्मीद है तेरी सूरत 
तेरी चाहत है इख़्तियार तेरा

शब् ए गुलज़ार हैं आरजुएं तेरी 
शब् ए बेज़ार है इंतज़ार तेरा



हाल-ए दिल किसको बताएं जो तुम न हो 
किसी को क्यूँकर बताये जो तुम न हो।

दिल ये कहता है मुस्कुराया जाए 
लब ये मुस्कुराएं कैसे जो तुम न हो।


ग़ज़ल,

शब ए हिज़्र में जाना कि मुहब्बत क्या है
मर्ज़ ए दिल क्या  है, वस्ल की राहत क्या है।

रोकना दिल को, छुपाना हो हाल चेहरे से
कीमत ए शौक़ क्या  है,दर्द की हालत क्या  है।

जाना उसकी गली और फेरना नज़र उस से
ज़ब्त ए दिल क्या  है,पुरज़ोर अदावत क्या  है। 

बुधवार, 17 दिसंबर 2014

क्यों

क्यों चाँद बिलखता है
क्यों तारे रोते हैं
इतनी बेचैनी में
क्यों लोग वो सोते हैं
दिल की गहराई में
क्या आग लगायी है
क्यों ख़्वाबों के घर पे
बदली सी छायी है
क्यों घुप्प अंधेरा है
क्यों दूर सवेरा है
दिल दूर नही तुझसे
तू पास हमारे है
चलते हैं कश्ती में
नहीं दूर किनारे हैं

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

जादू के सारे हिस्से

एक दिवाली
तीन इतवार 
और तुम्हारा लम्स 

दिवाली के दिए ने 
एक आग जलायी थी 

और वो आग 
शोले में तब्दील हो गयी 

टेबल के दूसरी तरफ 
तुम्हारा होना 
जादू का 
एक हिस्सा था शायद 

दूसरा प्लेटफार्म की 
रेलिंग से खुल गया 

और फिर संतरे के 
छिलके की तरह पर्दा हटा 

जादू के सारे हिस्से 
नज़र आने लगे 

तुम बहुत याद आओगी

तुम्हारा लम्स 
रह जाएगा होंठों पर 

नहीं उतरेगा मेहँदी के 
रंग की तरह हथेलियों से 

और जो नज़्म तुम्हे 
पढ़ के सुनाई थी "मुलाक़ात" 

उस से उठा "दीवानगी का आलम"
बरसों बरसेगा 
दिल के घाट पर 

तुम्हारी हथेलियों की 
तरह सर्द होंगी जब मेरी रातें 

तुम बहुत  याद आओगी 

धड़कनें जब तेज़ होंगी 
साँसों में तूफ़ान होगा 
और हम चाँद पे एक कश्ती 
में तैरने  के ख्वाब देखेंगे 

तुम बहुत याद आओगी 

जब भी मेरे पाँव 
किसी के पाँव से टकराएंगे 
कोई जब कंधे पे चिकोटी 
काट के जगायेगा 

तुम बहुत याद आओगी 

जब भी कोई क्लिफ 
कहीं बिस्तर पे गिरा नज़र आएगा 
कान पे उँगलियाँ 
जब फेर कोई जाएगा 
मेरे गालों को कोई हौले 
से सहलाएगा 

तुम बहुत याद आओगी 

तुम

तुम जीती हो 
क्योंकि जीना है तुम्हे 

और एक मिसाल क़ायम करनी है 
हम सबके लिए 

तुम्हारे तजुर्बे जब बन जाएंगे 
क़िस्से कहानियों का हिस्सा 

तब भी तुम रह जाओगे 
यहीं 

औरों के बीच 
औरों के साथ 

मेरे करीब

मेरे करीब कांटे हैं
और दर्द का सागर है

तुम जो आओगे पास 
तो चुभ जायेंगे कांटे
और छलनी कर दे़ंगे तुम्हारा दिल

हमारे पास कुछ नहीं देने को 
सिवा ईक दर्द के मौसम के

वो मौसम जो पूरे साल एक सा रहता है
कभी नहीं बदलता

आज लगा कि वो मौसम
पहुँच गया तुम्हारे पास

हमारे लाख न चाहने के बावज़ूद

तुम

सुबह की पहली किरन सी
तुम 
रोशनी लेकर आती हो

कोई जादू सा आता है तुमको

कभी शोख नजर से 
कभी बातों की शोखी से

दिल को अपना बनाती हो

तुम आरजू हो
तुम जुस्तजू हो

जो एक ख्वाब के सहारे
दिल में पैबस्त हो

सुबह फिर भी तुम्हें
खामोश रहके याद करती है

मेरे हिस्से का वक़्त

मेरे लिए तुमने 
वक़्त को थामा है बहुत

कई दफे दूसरों 
से छीना है मेरे हिस्से का वक़्त

इतनी शिद्दत से कौन 
किसको याद करता है

तू जो करता है 
वो दुनिया में कौन करता है

तू खुदा की कोई अमानत हो जैसे
मेरे हंसने की ज़मानत हो जैसे

यूँही दुनिया में कोई बेक़रार नही होता

हज़ारों ख्याल

जब वक़्त होता है बहुत 
तो हज़ारों ख्याल आते हैं

कुछ तुम्हारी ज़ुल्फ़ों में उलझ 
जाते हैं 
और कुछ तुम्हारी आँखों 
में डूब जाते हैं

फिर एक खालीपन होता है
ख्यालों का 

लेकिन तब भी तुम पास होती हो
पहले से कहीं ज़्यादा पास

और फिर ढूँढने लगता है
दिल
एहसास की वजह
बेताबी की वजह

जवाब तो कुछ नहीं मिलता
लेकिन सवाल करना अच्छा लगता है

जैसे ज़िन्दगी एक सवाल से
दुसरे सवाल पे जाने का नाम हो

रविवार, 26 अक्तूबर 2014

दरिया

तुमने देखा है कभी
अपनी आँखों में ग़ौर से

वो जो दरिया बहता है,

यूँ  तो हर रोज़ बहता
रहता है ,

कभी मध्धम मध्धम
और कभी उमड़ने को बेचैन,

पर उस दिन क़ैद हो गया
वो तस्वीर में ,

दिए की रौशनी की परछाई
नज़र आई दरिया में,

और ठहरा हुआ सा दरिया

गुलाब के फूल की पंखुड़ियों की तरह
गुलाबी हो गया,

मानो शरमा गया हो,

दरिया की मछलियाँ
ये देख के इतरा गयीं,

और दरिया ने अपना रुख
बदल दिया जैसे,

और बहने लगा उस ओर
जिधर सेहरा सी वीरानी थी ,

और उस बंजर में भी फूल
खिलने लगे फिर से।  

शुक्रवार, 24 अक्तूबर 2014

ग़ज़ल,

इक दिया दिल में जला लो यारों 
फिर चाहे आग लगा लो यारो। 

रौशनी है तो अँधेरा न होगा,
उसको अपने पास बुला लो यारों। 

मुस्कुराहटों से लगे है चोट दिल में ,
थोड़ी सा और रुला लो यारों। 

हार और जीत  है तुम्हारा मसला,
जीतकर मुझको हरा लो यारों। 

कहीं हो दाग़ जिस्म पर तो छूट जाएगा,
दिल पे कुछ दाग लगा दो यारों। 

यूँ तो क़िस्मत ने कई बार आज़माया हमको 
तुम  भी एक बार आज़माअो यारों।  


मंगलवार, 21 अक्तूबर 2014

ज़िंदगी

ज़िंदगी वहाँ नहीं है
जहाँ अँधेरे कोनों में बैठे
ढूंढ रहे हैं आप

ज़िंदगी तो खुले आसमान के नीचे
गुनगुनी धूप में है,

ज़िंदगी मेज़ पर बैठकर ली गयी
चाय की चुस्कियों में है,

ज़िंदगी उदास चेहरों से दूर
कहीं से आती मीठी हँसी में है,

सो ज़िंदगी को वहाँ क्योँ ढूँढे
जो उसका पता ही नहीं,

क्यों ना आज से ढूढ़ने का लहज़ा
बदले ,

चलें उस ओर
जहाँ नहीं देखा पहले,

किसी की मुस्कराहट की वजह बन जाएँ।

और फिर अपने आप
लौट आएगी वो ज़िंदगी

जिसकी तलाश है ,

यही चाहते हैं न आप ?

फिर न कहियेगा  किसी
ने बताया नहीं।


गुरुवार, 9 अक्तूबर 2014

सवाल-जवाब

वो शिकायत करते हैं ,
बदलते वक़्त की
बदलते चेहरों की
बदलते मौसम की ,

क्यों इतनी जल्दी बदल
जाते हैं लोग?

इस सवाल का क्या जवाब होगा?

सोचता हूँ कि वो जवाब दूँ
जो सच है।

पर क्या वो सच सुनना चाहते हैं ?

नहीं।

उन्हें जवाब चाहिए ,
वो भी वो जो उन्हें पसंद आये।

जवाब जो उन्ही पहले से मालूम है।
जवाब जो तसल्ली दे।

मै भी जवाब देता हूँ,
कि अब जवाब मेरी तरफ नहीं आते।

मुझे देख किनारे से मुड़ जाते हैं।

पर मेरे पास जो जवाब हैं
वो हैं भी या नहीं
ये पता नहीं।

पर लगता है,
वक़्त जो बदल रहा है
वो इसलिए
कि  आप उसे खड़े होकर देख रहे हैं।

लोग बदल गए से लगते हैं
क्योंकि वो बढ़ गए हैं
मील के किसी और पत्थर पर ,

रास्ते की धूल मिट्टी ने बदल दिया है
दिल भी और चेहरा भी।

और मौसम का क्या है,
वो तो बदलते ही रहते हैं। 

रविवार, 21 सितंबर 2014

इंसानियत

राह चलते कौन आपको पहचानता है
ये भी बता देता है बहुत कुछ,

वो कोने का सब्ज़ी वाला या जूस वाला
जो आपको भैया कह के आवाज़ लगाता है,

और एक छोटी सी झिड़की कि
"छुट्टे ले के आने हैं तुझे"
इतना सुनकर ही दौड़ पड़ता है,

दो छोटे बच्चे पहचान लेते हैं आपको
वो जिनका बचपन छिन गया है उनसे

और खिलाने चल पड़ते हैं आप

बेगाने शहर में जहाँ मुठ्ठी भर यक़ीन
भी बहुत मुश्किल से मिलता है,

वहाँ थोड़ा ज़्यादा दिल को खुश
कर देता है।

इंसानियत कैसे ढूंढें खुद के अंदर
वो भी तब जब दूसरों में उसके न होने
का रोना रोते हैं हर रोज़,

ये  सवाल परेशान तो करता था
पर जवाब कुछ आज मिला
थोड़ा सा,

कि "दीद की ख्वाहिश है तो नज़र पैदा कर"

बुधवार, 13 अगस्त 2014

ग़ज़ल,

अब किसी हाल में न बदलेंगे ज़माने वाले,
चाहे फिर जान से क्यूँ न चले जाएँ, जाने वाले।

इश्क़ मज़हब है यक़ीनन, मगर ये मत मानो,
मुठ्ठी भर लोग हो तुम, लाखों हैं सताने वाले।

तुम तारीख बदलने का हुनर तो रखते हो,
कहाँ मिटते हैं मगर, तारीख मिटाने वाले।

सच कह के हार जाते हैं जो हैं दिलवाले,
झूठ कह कर के बचा लेते हैं, बहाने वाले।

आग हर कोई लगा देता है फ़िक्र मत करना,
बड़ी मुश्किल से पर मिलते हैं, बुझाने वाले।

किसी का इंतज़ार मत करना, उम्र भर ऐ दिल,
बहाने ढूंढ ही लेते हैं , न आने वाले।

लफ़्ज़ों का क़ैदख़ाना

वही अलफ़ाज़ बार बार
क्यों आते हैं ,

नए लफ्ज़ भी तो हैं
जो आ सकते हैं इस्तेमाल में,

लेकिन ज़िंदगी ऐसी लगती है
जैसे लफ़्ज़ों का क़ैदख़ाना हो।

और वही लफ्ज़ इस्तेमाल हो
पाते हैं जो उस चारदीवारी के अंदर हों।

और वो अलफ़ाज़ जो खुली
हवा में सांस ले रहे होते हैं बाहर,

वो दूर नज़र आते हैं।

दिल करता है कि उनको
भी ज़िन्दगी की किताब में पैबस्त कर दूँ।

क्या आज़ादी किताब में लिखी जा सकती है ?

बेचैनी

बेचैनी होना ज़रूरी है। 
दुनिया में कितनी चीज़ें हैं
जो बेचैन करने को काफी हैं।

दूसरों का दर्द,
कुछ की बेरुखी,
रोज़मर्रा के हालात
अच्छे तो किसी को नहीं लगते।

लोग सहमे डरे
जीते रहते हैं उम्मीद के सहारे। 

साथ यूँ तो कोई नहीं होता ,
पर ये बेचैनी अकेले लड़ने 
में मदद करती है। 

बुधवार, 6 अगस्त 2014

ग़ज़ल,

ज़िंदगी का हिसाब रखते हैं
लोग इसकी किताब  रखते हैं।

जिनको ख्याल है और थोड़ी फ़िक्र भी
वो अपने हिस्से अज़ाब रखते हैं।

अपनी ख्वाहिशें कम नहीं करते
लोग आरज़ूएं बेहिसाब रखते हैं।

लोग उनसे नहीं पूछेंगे सवाल
जो अपने पास जवाब रखते हैं।

वो अंधेरों से फिर नहीं डरते
जो दिलों में आफताब रखते हैं।


बुधवार, 30 जुलाई 2014

ग़ज़ल,

तुम भी कह लो तुम्हें जो कहना है
हम भी सुन लें और चुप हो जाएँ

ज़िंदगी है , तो उलझनें भी होंगी
क्या करें अगर न खो जाएँ

किसी के हिस्से तो आना है मुझको
नहीं अपने तो तेरे हो जाएँ

रात इतना तो करम कर मुझ पर
ख्वाब आएं न आएं हम सो जाएँ


रविवार, 20 जुलाई 2014

ग़ज़ल,

इक दफे चांद मुस्कुरायेगा , 
इक दफे तुम भी मुस्कुरा देना।

फिर से इस बार घनी उदासी में, 
तुम उम्मीदों के गीत गा देना।

ख्वाब चाहें हो न हों पूरे ,
उनकी तस्वीर तुम बना देना।

लोग तो दर्द बाँटते रहेंगे ,
तुम उस दर्द की दवा देना।

खो के उम्मीद जो बैठे है उनको
तुमपे लाज़िम है सहारा देना।

गुरुवार, 13 मार्च 2014

पॉलिटिकल शायरी

सियासी दौर में अलग़ रंग हैं हुक्मरानों के
ख़ून के रंग को पान का दाग़ बताते हैं।

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तुमने टिकट न दिया तो छोड़ जायेंगे
सियासी पहलवान लड़ते हैं पाला बदल-बदल के।

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सोमवार, 3 मार्च 2014

गर थाली आप की खाली है

गर थाली आप की खाली है
तो सोचना होगा कि खाना कैसे खाओगे

ये आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टा
जब तक कि खाली पेट नहीं भरता

अपनी मदद
आप करो
किसी का इंतज़ार न करो  

यदि काम नहीं है  और आप हो गरीब
तो खाना कैसे होगा ये आप पर है
सरकार आपकी हो ये आप पर है

पलट दो उल्टा सर नीचे और टाँगे ऊपर
आप पर है कि पलट दो सरकार को उल्टा

-बर्तोल्त ब्रेख्त

शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल,

शक़ नहीं है तुझ पर, मगर यक़ीं भी नहीं
सर ए आसमाँ न दिखा, पैरों तले ज़मीं भी नहीं।

तुझको होगा ये मुग़ालता कि तू है कोई ,
मै देख पाया वजूद अपना, पर कहीं भी नहीं।

दिल पे बातों से असर होता है नफ्स के जितना,
कर पाती है असर उतना, महज़बीं भी नहीं।

ज़िंदगी रोज़ कहाँ ज़िंदा रखती है हमें "शाहिद"
रोज़ मर जाएँ हम, कुछ ऐसे आदमी भी नहीं।

-  शाहिद अंसारी

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल,

लफ्ज़ मेरे थे कहानी उसकी ,
खून मेरा था रवानी उसकी।

दर्द दोनों को मिला था लेकिन ,
लोग कहते थे, कारस्तानी उसकी।

बाग़  में फूल खिलाया किसने?
पौधे मेरे थे बागबानी उसकी।

क़त्ल किसने किया ये क्या मालूम,
नाम आया "शाहिद" का ज़ुबानी उसकी।

- शाहिद अंसारी


सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल,

मय जो आती है तो आए चाहे जिस रात आए
वो शब् ए वस्ल आए या शब् ए फ़िराक आए।

आयी जब भी शब् ए फ़िराक उनकी याद हमे,
हम घर तो लौटे मयकदे से मगर नमनाक आये।

नींद आ भी गयी जो आसानी से बिस्तर पे तो,
ख्वाब जगा गए ऐसे जो खौफनाक आये।

पूछा जिसने भी तुमसे हाल ए दिल "शाहिद"
जुबां से लफ्ज़ भी कुछ ज्यादा बेबाक आये।


रविवार, 2 फ़रवरी 2014

माँ का दिल

एक बेचैनी हमेशा रहती है
उसके  दिल में ,

इस बात का डर
सताता रहता है उसे ,
कि घर से दूर उसके बच्चे कैसे हैं ?

खाने पीने के बारे में
जितनी हिदायतें दी जा
सकती हैं ,
वो हर रोज़ फ़ोन पे दे दिया करती है।

वो समझती है कि
दूर रहना वक़्त कि ज़रुरत है ,
पर माँ का दिल कभी मानता है भला

वो तो चाहती है बस यही
कि उसके जिगर के टुकड़े उसके पास रहें।

दूरियाँ जो नए दौर में बढ़ गयी हैं ,
उसमे उसके दिल कि बात तो किसी ने
पूछी ही नहीं ,
न कभी जानना चाहा,

नया दौर कितना कुछ
छीन रहा है लोगों से

और बदले में क्या दे रहा है
थोड़ी सी आज़ादी ,

ये थोड़ी आज़ादी कहीं कुछ
ज्यादा तो नहीं ले रही ?

- शाहिद अंसारी


सोमवार, 20 जनवरी 2014

त्रिवेणियाँ

कुछ साये छोटे होते गए और ग़ुम हो गए कहीं ,
ठीक उसी वक़्त जब सूरज  सर पर था ,

शायद  इसीलिए वो रौशनी से डरता है।


सुकून

बाज़ार में मुठ्ठी भर बेसब्र लोग
तलाश रहे  हैं सुकून ,

कहाँ बिकता है ?
और कहाँ मिल पायेगा ?

 थक के जब निकलते हैं
और जब

एक फ़क़ीर को देते हैं
चन्द सिक्के

तो खुदा याद आता है,

सुकून भी वहीँ मिले शायद।

बुधवार, 15 जनवरी 2014

वक़्त का पहाड़

खाली बैठे
वक़्त का पहाड़
चढ़ना अच्छा  लगता है।

ठीक वैसे ही
जैसे सचमुच का
कोई पहाड़ चढ़  रहे हों।

रास्ते में झाड़िया
आती हैं जब
वक़्त कुछ उलझा
हुआ मालूम होता है ,

कभी कभी वक़्त चुभता
भी है ,
जैसे पहाड़ चढ़ते वक़्त
कोई काँटा चुभ जाता है पाँव में,

वक़्त के पहाड़ में
और असल में फ़र्क़ इतना है
कि असल पहाड़
से हम उतर जाते हैं।

वक़्त का पहाड़ अनंत मालूम होता है ,
जैसे कभी ख़त्म न होगा,

लेकिन हम वहाँ से उतर  नहीं पाते
बस हम ख़त्म हो जाते है ,

वैसे ही जैसे पांडव हो गए थे

रविवार, 12 जनवरी 2014

नुक्ताचीं

ये साबित करना
कि आप अच्छे  हैं

कभी कभी मुश्किल
हो जाता है ,

लोग आपकी चुप्पी को
आपका घमंड साबित
करते हैं।

पर  हमारे दिल में  क्या है

उसे पढ़ने की मशीन
कहाँ है उनके पास,

नुक्ताचीं है ग़म-ए -दिल
जैसा ग़ालिब कह गए

लोग तो बस
नुक्ताचीं
रहेंगे।



अंदर बैठा डर

जो सबसे पहले
ख़त्म होना चाहिए
वो है
उनके
अंदर बैठा डर

किसी अहित होने से  पहले
उसके होने
का एहसास

लोगों को
वक़्त से पहले मार देता है।

फिर वो
हर बात
हर शख्स
को संशय की नज़र
से देखते हैं।

अगर जीवन है
तो हमे  इन ख़तरों का सामना
करना चाहिए।

सुरक्षित जीवन
जैसी किसी अवधारणा
का  कोई आधार नहीं ,

जैसा किसी ने
कहा है कि
जहाज़ बंदरगाह  में
सुरक्षित तो है
पर उसका निर्माण इस
लिए नहीं हुआ है।