बुधवार, 13 अगस्त 2014

ग़ज़ल,

अब किसी हाल में न बदलेंगे ज़माने वाले,
चाहे फिर जान से क्यूँ न चले जाएँ, जाने वाले।

इश्क़ मज़हब है यक़ीनन, मगर ये मत मानो,
मुठ्ठी भर लोग हो तुम, लाखों हैं सताने वाले।

तुम तारीख बदलने का हुनर तो रखते हो,
कहाँ मिटते हैं मगर, तारीख मिटाने वाले।

सच कह के हार जाते हैं जो हैं दिलवाले,
झूठ कह कर के बचा लेते हैं, बहाने वाले।

आग हर कोई लगा देता है फ़िक्र मत करना,
बड़ी मुश्किल से पर मिलते हैं, बुझाने वाले।

किसी का इंतज़ार मत करना, उम्र भर ऐ दिल,
बहाने ढूंढ ही लेते हैं , न आने वाले।

लफ़्ज़ों का क़ैदख़ाना

वही अलफ़ाज़ बार बार
क्यों आते हैं ,

नए लफ्ज़ भी तो हैं
जो आ सकते हैं इस्तेमाल में,

लेकिन ज़िंदगी ऐसी लगती है
जैसे लफ़्ज़ों का क़ैदख़ाना हो।

और वही लफ्ज़ इस्तेमाल हो
पाते हैं जो उस चारदीवारी के अंदर हों।

और वो अलफ़ाज़ जो खुली
हवा में सांस ले रहे होते हैं बाहर,

वो दूर नज़र आते हैं।

दिल करता है कि उनको
भी ज़िन्दगी की किताब में पैबस्त कर दूँ।

क्या आज़ादी किताब में लिखी जा सकती है ?

बेचैनी

बेचैनी होना ज़रूरी है। 
दुनिया में कितनी चीज़ें हैं
जो बेचैन करने को काफी हैं।

दूसरों का दर्द,
कुछ की बेरुखी,
रोज़मर्रा के हालात
अच्छे तो किसी को नहीं लगते।

लोग सहमे डरे
जीते रहते हैं उम्मीद के सहारे। 

साथ यूँ तो कोई नहीं होता ,
पर ये बेचैनी अकेले लड़ने 
में मदद करती है। 

बुधवार, 6 अगस्त 2014

ग़ज़ल,

ज़िंदगी का हिसाब रखते हैं
लोग इसकी किताब  रखते हैं।

जिनको ख्याल है और थोड़ी फ़िक्र भी
वो अपने हिस्से अज़ाब रखते हैं।

अपनी ख्वाहिशें कम नहीं करते
लोग आरज़ूएं बेहिसाब रखते हैं।

लोग उनसे नहीं पूछेंगे सवाल
जो अपने पास जवाब रखते हैं।

वो अंधेरों से फिर नहीं डरते
जो दिलों में आफताब रखते हैं।