गुरुवार, 15 अप्रैल 2010

गवाह....

नहीं उड़ते परिंदे ये डर किसका है;
खौफ आँखों में है पर दिखाई नहीं देती.

खुशबू फूलों कि छीन ले गया है जो
उसकी आवाज़ भी अब कहीं सुनाई नहीं देती.

तंज़ बातों में ये अचानक नहीं आया;
कुछ बातें होती है जो बताई नहीं जाती.

नज़रें ढूंढती है अब भी किसी के आने कि राह

जाने क्यों कुछ गलतियाँ दोहराई नहीं जाती.

चाहे कितना भी बरपा हो शोर तुम्हारे अंदर
लोग बहरे है शहर के उन्हें सुनाई नहीं देती.

"शाहिद" गवाह है कितने ही किस्सों का;
कुछ कहानियां तमाम उम्र भुलाई नहीं जाती.