मंगलवार, 18 सितंबर 2012

एक ख़त

एक ख़त लिखना चाहता हूँ तुम्हे
बताने के लिए

की कैसा वक़्त बीता या कैसा
बीत रहा है अब भी,

खालीपन क्या होता है
ये जानने के लिए

ज्यादा मशक्क़त नहीं करनी पड़ती ,

नज़र आ जाता है
वो सूनी आँखों में ,

खोये खोये रहना
आदत नहीं भी थी
और बन भी गयी,

मौसम बदलते रहते हैं
खिड़की के उस पार

पर यहाँ का मौसम
हमेशा एक सा ही रहा है ,

नमी दीवारों में जम सी गयी है

धुप सीधी  भी पड़े
तो ये सीलन कम नहीं होती,

रगों में खून ठंडा
पद गया है,

पर वो चुभन दिल में अब भी है

वो बेकरारी
जो दिल में थी नहीं गयी अब तक,

हाँ , इस दरमियान वक़्त
बहुत गुज़र गया हैं,

मैदान में नयी घास उग आई है,

पड़ोस के लड़के भी बड़े हो गए हैं,

चेहरे पे झुर्रियां अब नज़र आने लगी हैं,
कुछ सफ़ेद बाल भी झाँकने लगे है यहाँ वहां,

हथेलियाँ अब भी लिखती है
गुजरी बातें

नए ख्याल अब भी आते है

पर पुराने ख्याल की तरह
तुम जमी हुयी हो वहीँ

जस की तस

एक ख़त लिखना चाहता हूँ तुम्हे ,
जिस से मै  गुज़र ज़ाऊ

उन सालों की तरह
दुनिया से दूर ,

एक नयी दुनिया में
सुकून के साथ

.................

बड़ा

क्यों तुम्हे ढूंढता हूँ
आधी रात को

फ़ोन स्विच ऑफ
किये बैठे हो,

मेरी एक बात नहीं सुनते,

तुम्हारी उम्र में मै  भी नहीं सुनता था,

आज समझ आता है
कि माँ रात को क्यों
परेशान होती थी,

हम समझ पाते हैं क्या कभी
किसी के प्यार को ?

हम सिर्फ उसका न होना
महसूस करते हैं,

ढूंढते हैं उसे

पर जब वो पास
होता हैं

हमे नहीं पता होता
कि वाकई क्या कीमत है उसकी,

घर आ जाओ जल्दी ,

मै  इंतज़ार कर रहा हूँ,

अगली बार ज़रूर बात
मान लेना मेरी,

मै  बड़ा हूँ .

तुमसे तो हूँ न?

अब जिद न करो,

और बात सुनों मेरी ..

............




ऊपर वाला

डर लगता है
उस ख्याल से भी

कि

कुछ हो जाएगा
जो अच्छा न हो शायद

और उस बात
से की कहीं कुछ

अच्छा हो ही गया तो,

लोग क्या कहेंगे ,

ऊपर वाले को दोष देंगे

ऊपर वाला किसको
देता है आखिर?

और किसको नहीं देता?

सबकी शिकायत सुनता है,

और सबको शिकायत भी है उस से

ढेरों ख्वाहिशों के बोझ तले

लोग उस से ही आस
लगाये बैठे रहते हैं

कहते हैं वो है ना
सब देख रहा है,

सुनेगा तुम्हारी भी,

सबकी सुनता है,
क्या सचमुच सबकी सुनता है?

सुनता होगा शायद
......

सोमवार, 17 सितंबर 2012

अँधेरे से

क्यों समझना मुश्किल होता है

उन बातों को भी
जो बहुत आसान होती है।

सीढ़ी बात
तब तक नहीं समझ आती

जब
तक कुछ अजीब न हो जाए
आपके साथ,

जो बात ,
दूसरों को डरा सकती है

वो आपको हंसी खेल लगती है,

क्योंकि आप नहीं गुज़रे
हैं उन रास्तों पर

जहाँ रौशनी नहीं होती
जहाँ आप अपने आप को पहचान
नहीं पाते,

अँधेरी सुनसान
गलियां

सिखाती है,

जीने का और मरने का
मतलब,

लड़ना सिखाती हैं

मुश्किलों से
और उस डर से

जो लगता है अँधेरे से

....

रविवार, 9 सितंबर 2012

...

हर पल बस
कोई पीछे लगा रहता है,

पल पल की खबर रखता है,
सही गलत का हिसाब भी,

नहीं रखता तो बस

एक दिल नहीं रखता

जो धड़कता हो,
महसूस करता हो,

सचमुच  की दुनिया
में  लोग,

मशीन जैसे होते हैं,

गुज़रा वक़्त ...!

उन मुठ्ठी  भर पलों के नाम
जब मै , मै हुआ करता था,

जब मेरे ख्वाब मेरे थे,
मेरी उम्मीदें मेरी ख्वाहिशें

किसी की गुलाम नहीं थी,

जब सर्द हवा धीरे से कानों में
लोरी सुनाती थी ,

जब सूरज आसमान से मुझे
मुंह चिढ़ता था,

या चाँद की अठखेलियाँ
मुझे वैसी ही लगती थी,

वो मासूमियत
जो हुआ करती थी होंठों पर,

अब गुज़रे वक़्त की बात लगती है.