सोमवार, 20 जनवरी 2014

त्रिवेणियाँ

कुछ साये छोटे होते गए और ग़ुम हो गए कहीं ,
ठीक उसी वक़्त जब सूरज  सर पर था ,

शायद  इसीलिए वो रौशनी से डरता है।


सुकून

बाज़ार में मुठ्ठी भर बेसब्र लोग
तलाश रहे  हैं सुकून ,

कहाँ बिकता है ?
और कहाँ मिल पायेगा ?

 थक के जब निकलते हैं
और जब

एक फ़क़ीर को देते हैं
चन्द सिक्के

तो खुदा याद आता है,

सुकून भी वहीँ मिले शायद।

बुधवार, 15 जनवरी 2014

वक़्त का पहाड़

खाली बैठे
वक़्त का पहाड़
चढ़ना अच्छा  लगता है।

ठीक वैसे ही
जैसे सचमुच का
कोई पहाड़ चढ़  रहे हों।

रास्ते में झाड़िया
आती हैं जब
वक़्त कुछ उलझा
हुआ मालूम होता है ,

कभी कभी वक़्त चुभता
भी है ,
जैसे पहाड़ चढ़ते वक़्त
कोई काँटा चुभ जाता है पाँव में,

वक़्त के पहाड़ में
और असल में फ़र्क़ इतना है
कि असल पहाड़
से हम उतर जाते हैं।

वक़्त का पहाड़ अनंत मालूम होता है ,
जैसे कभी ख़त्म न होगा,

लेकिन हम वहाँ से उतर  नहीं पाते
बस हम ख़त्म हो जाते है ,

वैसे ही जैसे पांडव हो गए थे

रविवार, 12 जनवरी 2014

नुक्ताचीं

ये साबित करना
कि आप अच्छे  हैं

कभी कभी मुश्किल
हो जाता है ,

लोग आपकी चुप्पी को
आपका घमंड साबित
करते हैं।

पर  हमारे दिल में  क्या है

उसे पढ़ने की मशीन
कहाँ है उनके पास,

नुक्ताचीं है ग़म-ए -दिल
जैसा ग़ालिब कह गए

लोग तो बस
नुक्ताचीं
रहेंगे।



अंदर बैठा डर

जो सबसे पहले
ख़त्म होना चाहिए
वो है
उनके
अंदर बैठा डर

किसी अहित होने से  पहले
उसके होने
का एहसास

लोगों को
वक़्त से पहले मार देता है।

फिर वो
हर बात
हर शख्स
को संशय की नज़र
से देखते हैं।

अगर जीवन है
तो हमे  इन ख़तरों का सामना
करना चाहिए।

सुरक्षित जीवन
जैसी किसी अवधारणा
का  कोई आधार नहीं ,

जैसा किसी ने
कहा है कि
जहाज़ बंदरगाह  में
सुरक्षित तो है
पर उसका निर्माण इस
लिए नहीं हुआ है।