शनिवार, 7 अगस्त 2010

किताब














मेरे साथ बैठ के उसने दो कप चाय पे
अपनी जिंदगी की किताब खोली

कुछ पन्ने पलट के मुझे दिखाने लगा

बीच में कहीं कुछ मेरे आगे से गुज़रा हुआ लगा

उस शाम जब समंदर किनारे बैठ कर
हम लहरों को देख रहे थे

सीप में एक मोती ले आई थी तुम

उस सीप पे पड़ी लकीरें उस किताब में दिखी

मैंने  उस किताब से वो पन्ना फाड़ कर
अपनी जेब में रख लिया

 # शाहिद

कोशिश

कई दिनों से तुम से बात नहीं की

ऐसा लगता था जैसे मै भूलने का
नाटक कर रहा हूँ

क्या इतना आसान है सब कुछ भुला के
एक दम से पहले की तरह कोरा हो जाना

मेरा मन कागज़ की तरह होता तो मै मिटा
भी देता सब कुछ जो तुमने लिखा था

पर क्या मै जिंदा रह पाता उसके बाद

कभी ना हारने वाला मन
जब हार जाता है तो बहाने ढूंढता है

ऐसे बहाने जिनका कोई वजूद नहीं होता
पर वो हमारे दिए गए सहारे पे खड़े हो
हमसे ही मुंह लड़ते है

ऐसा जताते है की जो हुआ वो कोई ग़लती हो

मैंने उनसे कह दिया मै उनके साथ नहीं

कई दिनों बाद मैंने कोशिश की
तुमसे बात करने की

 #shahid

,तुम से है.

मेरी सुबह-ओ-शाम की इन्तहा तुम से है
इस बेजान जिस्म में कुछ बची जान, तुम से है

घर तो मेरा कब का उजाड़ गया है लेकिन
जो भी बचा खुचा है बियाबान, तुम से है

शहर वीरान है सड़के पड़ी है सूनी सूनी
ढूंढता फिर रहा हूँ वो ज़मीन जिसकी पहचान, तुम से है

कई दिनों से कुछ लोग आ के कह जाते है
वक़्त जो ले रहा है इम्तेहान उसका रिश्ता,तुम से है?

क्या बचा है जो खोने का ग़म मनाऊँ
 मुझे जो भी मिला उसका गिला बस ,तुम से है.

   # shahid

रविवार, 1 अगस्त 2010

है बहुत कुछ






















अनकहा अनसुना
सा था कुछ;
कुछ ऐसा भी था जो कह के मै पछताया
भी था कुछ.

अजीब ख्वाहिश थी जो अधूरी हो के
भी पूरी थी;
अजीब मै था जो पूरा हो के भी अधूरा
सा था कुछ.

शहर छोटा था फिर भी बड़ा लगता
था मुझे
अब बड़े शहर में हूँ तो मै भी छोटा
हो गया हूँ कुछ

कई सालों से जो मिलता था आज अनजान
बन गया हूँ उसके लिए;
जो  आज मिला हूँ तो लगता है उस से 
पुराना रिश्ता है कुछ.

पीछे  मुड़ के देखता हू तो बहुत
कुछ खोया हुआ सा लगता है;
सामने देखने पे लगता है की मैंने पाया
है बहुत कुछ .

 # शाहिद

दोस्तों के नाम

मुझे मेरे दोस्त ने याद दिलाई
पुरानी बातें

साथ गुज़ारे कुछ पल
लगा जैसे अभी कल ही कि तो बात है

उस सड़क के किनारे जहाँ हम रात को
बैठा करते थे
वो ज़मीन अभी भी कुछ गीली सी होगी

वो छत से तारों को देखते हुए
ज़िन्दगी के ढेरों सपने जो देखे थे
उस वक़्त कभी नहीं लगा कि ये

सपने ,बस सपने ही रह जायेंगे

वो सुबह भागती हुई बस के पीछे दौड़ना
वो शाम को थके हारे वापस लौटना

वो चाय पे सब के साथ की गयी मस्ती मज़ाक
वो रात के खाने पे की गयी बातें बेबाक

सब कुछ एक पुरानी फिल्म की तरह लगता
है  , जो चल रही हो फ्लैशबैक में

आज फिर सुबह उठ कर मै अपनी बस
पकड़ना चाहता हूँ 

वापस अपने उन्ही दोस्तों के संग

 # शाहिद