बुधवार, 26 जून 2019

ग़ज़ल

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ऐसे ही खर्च हो रहा है, लाचार आदमी,
ज़िन्दगी की उधेड़बुन में, तार-तार आदमी।

सुबह से दौड़ रहा, शाम को है सुस्ताता,
यही लड़ाई लड़ रहा है, बार-बार आदमी।

कभी ख्वाब का खंजर, कभी हक़ीक़त का,
रोज़ लेता है अपने अंदर, आर-पार आदमी।

खुशी बिखेर के हंसता है अक्सर दुनिया पर,
ग़म में रो रहा है अकेले, ज़ार- जा़र आदमी।

मुलायम दिल भी कहाँ रह पाता है सदा वैसा,
फूल बनने की कोशिश में, खा़र-ख़ार आदमी।

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