शनिवार, 8 जुलाई 2017

तुम और एवेरेस्ट

कागज़ों में तुम्हारी तस्वीर गढ़ना
एवेरेस्ट पर चढ़ने जैसा है ,

उतना ही मुश्किल,
उतना ही समय लेने वाला,

बेस कैंप पर जैसे
पर्वतारोही खुद को तैयार करते हैं
मुझे भी वैसे ही
तुम्हारी तस्वीर मन में बिठा कर
खुद को तैयार करना पड़ता है।

हर कदम
फूँक फूँक कर रखना पड़ता है,

तुम्हारे होंठ बनाते समय
ध्यान रखना पड़ता है,
कि उन पर बनी लकीरें
वैसी ही नज़र आएं।

तुम्हारी आँखों में जो गहराई है
वो किसी पहाड़ी दर्रे को पार करने
जितना रोमांचकारी है।

कागज़ पर कोई कैसे
उतार सकता है वो गहराई ,

वो तो जो डूबा है उनमे
वही जान सकता है।

तुम्हारी लहराती ज़ुल्फ़ें
बनाते वक़्त ऐसा लगता है
जैसे पहाड़ी पर कोई बर्फीला तूफ़ान
आ गया हो।

तुम्हारे चेहरे की चमक
के रंग भरने लगता हूँ
तो इंद्रधनुष नज़र आता है।

सूरज की चमक
कागज़ पर कहाँ उतर पाती है कागज़ पर ।

तुम्हारे बदन के वक्र
पहाड़ की चोटियों
जैसे नज़र आते हैं।

तीखे और फिसलन से भरे ,

जैसे तैसे करके
जब तस्वीर पूरी होती है,
फिर ख़ुशी का आलम ही दूसरा होता है।

तुम और एवेरेस्ट
दोनों ही मुश्किल मुक़ाम हैं।