बुधवार, 29 दिसंबर 2010

खुद के लिए

दिसम्बर का महीना

सर्दी की हल्की हल्की शुरुआत

ठिठुरते हुए कांपती सड़को पर
चलता रहता लोगों का हुजूम

कुछ जज्बा होता है जो चलने को मजबूर
करता है

वरना दिल तो यही करता है कि
घर में बैठ कर एक लिहाफ में बैठे हुए

सूरज को ढलते , उगते देखूं

शाम को बालकॉनी में बैठ के पकोड़ो संग
चाय कि चुस्कियां लूं

कुछ वैसे ही जैसे कुछ अरसा पहले किया करता था
जब ना आज जैसी भाग दौड़ थी

ना कोई फ़िक्र ना कोई वादा

कुछ नहीं

बस खुद के लिए
खुद के साथ

महसूस कर रहा होता था मै ज़िन्दगी को

गौर करता था मै हर छोटी बात
वो बात जो अहमियत रखती थी

मेरे जिस्म के लिए नहीं
मेरी रूह के लिए

पर कुछ को अच्छा नहीं लगता
इतना ख्याल

पर मुझे कैसा लगता है
मै सोच लेता हूँ बैठे बैठे फुर्सत में

अजीब है सब कुछ
बहुत अजीब..

गुरुवार, 23 दिसंबर 2010

कविता

कह दो तुम भी कह दें हम भी
ऐसी क्या मजबूरी है

राज़ी तुम हो राज़ी हम हैं
फिर काहें की दूरी है

अनजानी राहों पर चल के
अनदेखे सपने ढूंढेंगे

तुमको खुद को और फिर चल के
हम भी खुदा को ढूंढेंगे

बदलेगा सब वक़्त हमारा
जो अच्छा  होना होगा

फूल नए खिल आयेंगे फिर
बीज नए बोना होगा

कविता

दिल कि बातें दिल में रखो
दिल को मत समझाओ तुम

बात बड़ी हो या हो छोटी
उस से दिल ना लगाओ तुम

उलझो तो फिर सुलझाओ
रूठो जब फिर मनाओ तुम

मेरे आगे मेरे पीछे
आओ ना फिर जाओ तुम

बुधवार, 22 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

बहुत दिन बाद आएगी मुझे चैन की नींद 
आज मालूम हुआ मुझे  कि अब खोने को कुछ ना रहा 

मेरे आंसूं भी आज हैरान है मुझे देख कर 
जाने क्या हुआ जो अब रोने को कुछ ना रहा

तुम्हारा बाद अब बस इतनी आसानी है मुझे
अब कोई ख्वाब संजोने को कुछ ना रहा 

बहुत हल्का है अब उम्मीदों का बोझ
एक बोझ उतर गया तो अब ढोने को कुछ ना रहा


पता नहीं

बहुत अजीब लगता है

अपने हाथ कुछ अपना उजाड़ना

सिर्फ इसलिए कि कहीं नयी ज़मीन पर
कुछ नया बसाना हो

पर क्या करें कि

कभी हालात सुधारने के लिए
कुछ मुश्किल फैसले लेने पड़ते हैं

शायद उसमे भी नुक्सान अपना ही होगा

मगर नफे नुक्सान कि परवाह करना एक बात
है, और

हर रोज़ दोराहे पर खड़े हो के फैसले
करना दूसरी बात

बस यही लगता है कि आगे बढ़ने का नाम ही
ज़िन्दगी है

पता नहीं
 पता नहीं

क्या ऐसा सिर्फ मुझे लगता है?

मंगलवार, 21 दिसंबर 2010

ये शाम

एक कप काफी और तुम्हारा साथ

बस इतना हो तो वक़्त अच्छा गुज़रता है

कोई और ख्वाहिश नहीं होती उस वक़्त
बस तुम्हे देखने को जी करता है

तुम्हारी पलकों का गिरा एक हिस्सा
खींच लाता है मेरे हाथों को

तुम्हारी इधर उधर देखती नज़रें
और झूठा गुस्सा

दिल में ढेर सारा प्यार उमड़ आता है

ये सब इसलिए नहीं होता की तुम मेरी हो
बल्कि इसलिए की तुम्हारा कुछ वक़्त सिर्फ मेरा है

ज़िन्दगी की हज़ार शामों में ये शाम अलग है
और शायद हमेशा इतनी ही अलग होगी...

सोमवार, 20 दिसंबर 2010

कमबख्त

साली उधार की ज़िन्दगी

कौन कहता ये अपनी है

ये तो लीज़ पे मिली है
कई सारी शर्तों के साथ

हर महीने किराया मांगती है

रविवार, 19 दिसंबर 2010

लफ्ज़

बस कुछ लिखने ही तो बैठा था

मगर ये क्या कि आज लफ्ज़ भी
धोखा दे रहे हैं

जैसे वो भी मेरे अपने ना रहे

वैसे तो हर घड़ी मेरे ज़ेहन में
टकराते रहते है

पर जाने क्यों

जिस वक़्त उनकी ज़रुरत रहती है
वो मुझसे मुँह मोड़ जाते है

जैसे कोई उनको मेरे खिलाफ भड़का देता है

या वो मेरी उनकी लिए
दिखाई गयी बेरुखी का
बदला लेते है

जो भी बात हो

मुझे उस वक़्त वो बहुत सताते हैं

फिर जब थोड़ा सननाटा होता है

रात के आखिरी पहर
फिर जैसे उनको घर की याद
आती है

और वो वापस मेरे ज़ेहन में आ जाते है

और एक
झपकी ले लेते हैं

ग़ज़ल

हर घड़ी तुम्हारा झगड़ना भुला ना पाउँगा
जहाँ भी जाऊंगा ये याद ले के जाऊंगा

मेरा मोल मुझे खो कर ही समझ पाओगे
जब तुम बुलाओगे मै ना आऊंगा

कई बार होता है कुछ जो समझ नहीं आता
दास्ताँ फिर ना मै अब ये सुनाऊंगा

कहीं कुछ बात तो नहीं ...

बड़े खामोश दिखते हो

कहीं कुछ बात तो नहीं

ऐसा तो नहीं
कि कोई तूफ़ान आ के गुज़र गया हो

या फिर

ये किसी तूफ़ान के आने के पहले
कि ख़ामोशी है

सिर्फ आज क्यों

आज का दिन चुनने कि कोई खास वजह

क्या आज ही के दिन पिछली बार कुछ
अच्छा हुआ था

जिसकी याद आज फिर आ रही है

मुझे  पता है तुम्हे कुछ नहीं कहना

और तुम कुछ बोलोगे भी नहीं

पर मेरा दिल कहाँ मानता है

मै तो पूछ पडूंगा
भले तुम जवाब दो ना दो

बोलो


बड़े खामोश दिखते हो

कहीं कुछ बात तो नहीं?

शनिवार, 18 दिसंबर 2010

कुछ दीवारें टूटने

के लिए नहीं बनती

वो हमेशा के लिए खड़ी
हो जाती हैं

जब ऐसा हो तो ढूंढनी
पड़ती है कुछ खिड़कियाँ

दूसरी तरफ झाँकने के लिए

खुले रखने
पड़ते हैं

गुरुवार, 16 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

एक तुमसे ही कुछ उम्मीद थी पर ये क्या जाना
आज तुमने भी कह दिया कि अब नज़र ना आना

लोग ज़ालिम है उन के ताने मैंने सुन थे लिए
तू तो अपना था मगर तूने मुझे क्या जाना

अब खोने को बचा क्या है ,अब है कैसा डर
जो खोया तुमको तो अब मुझको है क्या पाना

ग़ज़ल

मुझे बस इतना कहना है कि मुझे बोलने दो
मेरी बात भी सुन लो कभी खुदा के लिए

बरस पड़ो ना मुझ पे, ना गरजो बादल की तरह
मेरी राय भी ले लो कभी सजा के लिए

बला का ज़ोर है तूफ़ान में जब वो उठता है
मेरी रूह तड़पती है जब वफ़ा के लिए

शहर...

कुछ शहर अपने साथ

अपने रहने वालों को भी

बदल देते हैं

बाहर निकलने पे जैसे सारा कीचड़
चिपक जाता है खुद से

वो थोड़ी नफरत जो गन्दगी देख के
आती है दिल में

या कुछ भिखारियों को देख के दुनिया की लोगों
के लिए बेरुखी

वो शहर अपने में ही एक ज़िन्दगी जीता रहता है

हर पल कुछ नए लोग आते हैं शहर की ज़िन्दगी में

कुछ रोज़ छोड़ के जाते हैं

पर वो कभी कुछ नहीं कहता हम इंसानों की तरह

लेकिन उस के साथ रह के
उसकी आदतों के साथ जीते जीते

हर इंसान कुछ जुटा लेता है अपने लिए

और वो शहर भी कभी कुछ मांग लेता है

और कभी छीन लेता है सब कुछ

शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

ग़ज़ल

मेरे दिल से तेरा दिल कुछ करीब सा है
मुझसे तेरा ये रिश्ता कुछ अजीब सा है

ये तो बस समझने का फर्क है वरना
कोई दोस्त लगता है,कोई रकीब सा है

कुछ तो फर्क है जो दोनों अलग से हैं
तू खुशनसीब सा है,वो बदनसीब सा हैं

क़ैद

बस वही रुको

हिलना नहीं

हाँ, बिलकुल ऐसे ही

रुको तो

बस थोड़ी देर और

नहीं नहीं ऐसे नहीं

बस अब मैंने क़ैद कर लिया तुमको

अपनी नज़रों  में

मुझे सुन.ना है

तुम कुछ मत सोचो

कुछ काम मेरे हिस्से ही अच्छे लगते हैं

तुम बस कहो

वो सब कुछ जो तुम्हे पसंद है

मुझे सुन.ना है ,सब कुछ आज

कितने दिन हुए

मुझे देखना है

मै घर जाना चाहता हूँ

आज

तुमसे थोड़ा पहले

मुझे देखना है आज सूरज डूबते हुए

कितने दिन हुए