शुक्रवार, 28 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल,

शक़ नहीं है तुझ पर, मगर यक़ीं भी नहीं
सर ए आसमाँ न दिखा, पैरों तले ज़मीं भी नहीं।

तुझको होगा ये मुग़ालता कि तू है कोई ,
मै देख पाया वजूद अपना, पर कहीं भी नहीं।

दिल पे बातों से असर होता है नफ्स के जितना,
कर पाती है असर उतना, महज़बीं भी नहीं।

ज़िंदगी रोज़ कहाँ ज़िंदा रखती है हमें "शाहिद"
रोज़ मर जाएँ हम, कुछ ऐसे आदमी भी नहीं।

-  शाहिद अंसारी

मंगलवार, 25 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल,

लफ्ज़ मेरे थे कहानी उसकी ,
खून मेरा था रवानी उसकी।

दर्द दोनों को मिला था लेकिन ,
लोग कहते थे, कारस्तानी उसकी।

बाग़  में फूल खिलाया किसने?
पौधे मेरे थे बागबानी उसकी।

क़त्ल किसने किया ये क्या मालूम,
नाम आया "शाहिद" का ज़ुबानी उसकी।

- शाहिद अंसारी


सोमवार, 24 फ़रवरी 2014

ग़ज़ल,

मय जो आती है तो आए चाहे जिस रात आए
वो शब् ए वस्ल आए या शब् ए फ़िराक आए।

आयी जब भी शब् ए फ़िराक उनकी याद हमे,
हम घर तो लौटे मयकदे से मगर नमनाक आये।

नींद आ भी गयी जो आसानी से बिस्तर पे तो,
ख्वाब जगा गए ऐसे जो खौफनाक आये।

पूछा जिसने भी तुमसे हाल ए दिल "शाहिद"
जुबां से लफ्ज़ भी कुछ ज्यादा बेबाक आये।


रविवार, 2 फ़रवरी 2014

माँ का दिल

एक बेचैनी हमेशा रहती है
उसके  दिल में ,

इस बात का डर
सताता रहता है उसे ,
कि घर से दूर उसके बच्चे कैसे हैं ?

खाने पीने के बारे में
जितनी हिदायतें दी जा
सकती हैं ,
वो हर रोज़ फ़ोन पे दे दिया करती है।

वो समझती है कि
दूर रहना वक़्त कि ज़रुरत है ,
पर माँ का दिल कभी मानता है भला

वो तो चाहती है बस यही
कि उसके जिगर के टुकड़े उसके पास रहें।

दूरियाँ जो नए दौर में बढ़ गयी हैं ,
उसमे उसके दिल कि बात तो किसी ने
पूछी ही नहीं ,
न कभी जानना चाहा,

नया दौर कितना कुछ
छीन रहा है लोगों से

और बदले में क्या दे रहा है
थोड़ी सी आज़ादी ,

ये थोड़ी आज़ादी कहीं कुछ
ज्यादा तो नहीं ले रही ?

- शाहिद अंसारी