शनिवार, 31 अक्तूबर 2015

भीड़

एक आग सी लगी है चमन में

लोग आपके फैसले भीड़ के
ज़रिये लेते हैं,

भीड़ जिसका कोई चेहरा नहीं होता,
पर भीड़ का आतंक होता है,

कायर लोग जो अकेले कुछ नहीं कर पाते
भीड़ के साथ हो जाते हैं,

अपनी कुंठा निकालते हैं
एक निरीह आदमी पर,

पहले उसपर कुछ झूठे
आरोप लगाये जाते हैं ,

ऐसे आरोप जिनसे भीड़ का खून
खौल उठे,

वही भीड़ जिसका खून समाज की अनेक
बुराइयों को देखकर ठंडा पद जाता है,

किसी ऐसी बात के लिए खौल उठता है
जो बात किसी भी सभ्य इंसान के लिए
एक छोटी बात हो सकती है,

भीड़ के अंदर भयानक गुस्सा भरा पड़ा है,

कहाँ से आया ये गुस्सा?
क्या बरसों से उन्हें ये सिखाया पढ़ाया जा रहा है?

कोई भीड़ को शांत रहना क्यों नहीं सिखाता?

कुछ लोग सिखाते तो हैं,
पर उनको मार दिया जाता है।

इसलिए क्योंकि वो शान्ति की बात करते हैं।

शान्ति की बात करना अपराध है,

इसलिए गुस्से की बात कीजिये
ऐसी बात कीजिये जिससे खून में उबाल आये।

भीड़ को ये पसंद आता है,
अगर आपको नहीं पसंद और आप भीड़ के साथ
नहीं हैं तो आप भी मार दिए जाएंगे,

लेकिन तभी अगर आप बोलें,

अगर आप चुप रहें तो सब ठीक है,
बिलकुल इस देश की तरह,
जहाँ सब ठीक है,

अमन चैन और भाई चारा है,

लेकिन फिर ये भीड़ इकठ्ठा कैसे हो जाती है ?
कौन बुलाता है ऐसे लोगों को एक साथ ?

आजकल नए साधन आ गए हैं
सोशल मीडिया
वाट्सएप्प

इसके माध्यम से घृणा फैलाई जाती है,

लोग इन साधनों का उपयोग गुस्सा निकलने के लिए
करते हैं,

यदि इनका गुस्सा न निकले
तो ये आग में घी डालने का भी काम करते हैं।

लेकिन ये सब पैदा कहाँ होता है ?

ये सब पैदा होता है पाठशाला में
पाठशाला में सिद्धांत पढ़ाये जाते हैं,

उस से शिक्षित लोग घृणा की सामग्री तैयार
करते हैं,

और फिर ये सामग्री भीड़ में बाँट दी जाती है।

क्या भीड़ का अपना कोई दिमाग नहीं होता ?

नहीं भीड़ का अपना कोई दिमाग नहीं होता
भीेड़ के मास्टरमाइंडस होते हैं,

क्योंकि भीड़ भेड़ों की तरह होती है ,
वो बस सीधी राह में चलती जाती है।

तो इन मास्टर माइंडस को सरकार रोकती क्यों नहीं ?

मास्टर माइंडस हमेशा शासन में होते हैं,
सरकार उनकी होती है ,
मशीनरी उनकी होती है ,

वही लोग मलाई खाते हैं
उनके लिए सत्य असत्य कुछ नहीं होता
धर्म अधर्म कुछ नहीं होता

भीड़ के लोग ही अपने में से किसी एक
को मार देते हैं

मरती भी भीड़ ही है
मारती भी भीड़ ही है
नुक्सान भी भीड़ का ही होता है

फायदा किसका होता है फिर ?

उनका जो भीड़ के साथ है
और भेड़ों को चराते हैं।

फिर किसी भेड़ को ज़बह कर के
उसका मांस रोटी के साथ खाते हैं।

किस भेड़ को ज़बह करना है इसका
चुनाव कैसे होता है ?

नॉर्मली वो भेड़ जो सवाल करती है उसका नंबर
पहले आता है
कभी कभी प्रोबेबिलिटी के हिसाब से होता है
कभी रंग के आधार पर
कभी इस आधार पर की उसके घर पर कौन सा झंडा है
कभी इस आधार पर की उसको प्रेम किस से है
कभी इस आधार पर की वो पैदा किस घर में हुआ है
कभी इस आधार पर की वो क्या खा रहा है

और जब कोई वजह नहीं होती तो वजह पैदा कर दी जाती है। 

गुरुवार, 16 अप्रैल 2015

पहेलियाँ , ख्यालों की

बेख्याली का कोई ख्याल
खुद से परे और खुद से दूर भी नहीं

जैसे किसी दिये  की खुशबू
जो जलता कहीं और है और
रौशनी यहाँ करता है

उस पर ये यक़ीन कि मेरा यक़ीन
जिस पर है , वही सच है

जैसे भटके हुए सारे लोगों को
लगता है , कि जिस पर वो चल रहे हैं
वही सही रास्ता है

क्या पता कुछ और भी हो ?

क्या हमारे पास वक़्त है देखने को?
ढूंढने पर क्या मिल जाएगा दूसरा रास्ता ?

कोई तलाश भी क्यों करे ?

शायद रास्ते भी
अपना राही खुद चुनते हों

शक और यक़ीन के बीच का एक ख्याल
उम्मीद और नाउम्मीदी के बीच से जाता है

वो ख्याल जलाता है
गरम रखता है
पिघलाता है

ख्याल जो कभी दूर नहीं जाता
ख्याल जो कभी पास नहीं आता

कुछ दिनों से उमड़ रहा है बादल की तरह
बिखरा हुआ ख्याल

क्या आने वाली बरसात में बिजली की तरह गरजेगा?
या चुप चाप चला जाएगा
इस ज़मीन से समंदर की तरफ

शायद ऊपर वाला कुछ कहना चाहता हो
तुमने सुनी है क्या कोई आवाज़?

परिंदे तो शायद कुछ और तलाश करते हैं
पहेलियाँ इंसानों के लिए बनी होती हैं

पहेलियाँ , ख्यालों की 

बुधवार, 18 मार्च 2015

बस आगे चलते जाना है

कुछ साये उलझे उलझे हैं
कुछ बातें भी उलझी उलझी

तुम सुलझा देना रातों को
जब चाँद भी हो उलझा उलझा

कोई साया है तो लौटेगा
फिर हाल हमारा पूछेगा

तुम भी तब पास में आ जाना
उसकी हाँ में हाँ तुम मिला जाना

एक आइना है जो टूटेगा
फिर कोई मुझसे रूठेगा

दिल की बातें दिल ही जाने
तुम अपने आप समझ जाना

कल कैसा होगा क्या जाने
फिर होंगे नए कुछ अफ़साने

यूँही छोटी छोटी बातों में
ये वक़्त गुज़रते जाएंगे

ये बेतरतीब ज़माना है
बस आगे चलते जाना है

बस आगे चलते जाना है। 

रविवार, 8 फ़रवरी 2015

...

दर्द सहना लगातार
और उम्मीद न खोना

ये दो चीज़ें रोज़ करनी होती हैं।

और तीसरी तलाश

ये सब कुछ ख़ामोशी से होता रहे
बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह
तो खुश रहता है
आसपास का मौसम,

बस किसी दिन बरस पड़ता है,

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

आने वाले वक़्त

कभी कभी नज़र लग जाती है
खुद की भी

जो काले साये  खुद पे मंडराते हैं
वो चले जाते हैं वहां तक

जहाँ तक उन्हें नहीं जाना चाहिए।

फिर सारी रात जाग कर सोचा
करते हैं

की क्या हुआ होगा ?
ठीक तो होगा सब ?

ठीक ही होगा सब
दिल कहता है ,

और नहीं होगा तो ?

इस सवाल का जवाब पूछना
भी नहीं बनता।

लेकिन चलना तो होता है
हमेशा की तरह
आगे

बिना कुछ सोचे
यक़ीन के साथ,

सुबह की तलाश में

लेकिन क्या दो लोग
या हज़ारों लोग
यूँही एक दुसरे से अनजान चलने
के लिए बने हैं ?

क्यों दीवार के पार आप
देख  नहीं सकते

कि कोई लड़खड़ाकर गिरा तो नहीं ?
कोई आवाज़ तो नहीं लगा रहा ?

या फिर सब
एक तनहा सुरंग में चल रहे हैं

सिर्फ इस उम्मीद में की उस पार
उजाला होगा

उस पार रास्ता बंद  हुआ तो ?
ये कौन बताएगा इस वक़्त ?

इसका जवाब वक़्त के पास है
आने वाले वक़्त के।


..............

जब कोई पौधा
अपनी जड़ों से दूर
बेगानी आबो हवा में पनपता है

उसमे वो बात नहीं रहती
जो उसे वापस उसी ज़मीन पे जाने दे।

उसकी जड़ें मजबूत नहीं हो पाती
कितना भी खाद पानी डालने पर

नयी ज़मीन में
चाहें कितनी भी उर्वरा शक्ति हो

उस पौधे में फूल तो खिला पाती है
लेकिन उसमे खुशबू नहीं आती

मंगलवार, 27 जनवरी 2015

रात भर

क्यों सोचते हो उसे रात भर
क्यों याद करते हो घड़ी घड़ी

ये जो दिल ही दिल के
सवाल हैं
इनका कोई ठीक जवाब नहीं

क्यों हो चलते फिरते उन रास्तों पर
जहाँ मिलनी कोई मंज़िल नही

जो मुक़ाम हैं
वो बस इस शाम हैं

तुम्हें सुबह की जो तलाश है
तो और किसी जानिब चलो

नए ख़्वाबों से कर लो तुम दोस्ती
नए फलसफे कुछ बना भी लो

जो खत्म नहीं फिर हो कभी
उसी दास्ताँ से गुज़र चलो

बुधवार, 14 जनवरी 2015

साथ

साथ कितना चाहिए 

इतना की 
हाथ पकड़ के कह पाएं कुछ 
जो ऐसे नहीं कह पाते 

या फिर इतना जो कल 
याद करें तो सालों याद करते रहें 

क्या होता है जब 
ज़्यादा वक़्त भी थोडा लगता है

और कभी कभी थोडा
वक़्त भी बहुत ज़्यादा

जैसे खर्च न हो पाये

मंगलवार, 13 जनवरी 2015

"भर जाओ"

सर्दियों में कहते हैं 
कि  पुराने दर्द वापस आ जाते हैं,
और परेशान करते हैं,

सालों पुराने दर्द 
जो शायद भूल गए हैं आप 

ये भी याद नहीं 
कि  चोट कब और कहाँ लगी थी,

लेकिन जो  उठता है दर्द ,
तो जिस्म का वो हिस्सा याद करता है 
वो सारे मुक़ाम 

और दिल भी कहता है जख्मो से 
कि "भर जाओ"


आजकल

आजकल बातें कम रहती हैं 
तुम्हारे पास 
जैसे कुछ नया होता नहीं 
कहने को

जैसे हर चीज़ का असर
कम होता जाता हो धीरे धीरे 

पर कुछ चीज़ें तो बढ़ती 
घटती रहती हैं न 
चाँद की तरह

हम लोगों को भी होना चाहिए
चाँद की तरह

और हर महीने
नया सा बन के आ जाना चाहिए
अपने आसमान में

गुरुवार, 8 जनवरी 2015

उम्मीद

तुझमे एक उम्मीद सा जलता है कुछ
उसको तूफानों से बचाये रखना 

वक़्त के साथ कम हो जाती है 
वो उम्मीद 
इसलिए कुछ ख्वाबों की लकड़ियाँ चुन के 
वक़्त वक़्त पे दिल के चूल्हे 
में झोंक देना 

ये जो उम्मीद है वो बरकरार रखती है एक गर्माहट ज़िन्दगी में 

और बचाये रखती है चेहरे की रौनक

वरना नाउम्मीद चेहरा
दूर से ही
एक सूखे पेड़ जैसा
अलग से नज़र आता है