मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

नज़्म- हवा

हवा आ के
बतलाओ कभी ;

कि मुक़द्दर क्या है ,

क्या है तबियत;
हाल-ए-दिल क्या है,

हौसले क़ी चिड़िया 
उडती है कहाँ?

कहाँ लोग
ग़म में मुस्कुराते हैं.

किस शहर में इंसान 
परेशान नहीं;

और कहाँ मिलती है 
ज़िन्दगी जो आज़ाद रहे;

किसने ख्यालों को
बेड़ियों में क़ैद किया;

कौन नशे में 
झूट बोलता है;

और किसका सच है 
जो आसान रहा है उसपे 

हवा आ के
बतलाओ कभी;

ज़ज्बात क्या है
दर्द क्या है ,
सितम क्या है;

ज़िन्दगी क्या है;
गर ये सच है 
तो भरम क्यों है

लोग गर भूल जाते है
तो आँख नम क्यों हो;

हवा आ के बतलाओ कभी ;

जीने के मायने क्या है;
फासले क्या है,
मुश्किलें क्या है;
हवा आ के 
बतलाओ कभी;

कहाँ पे लोग 
आसान राह चुन सकते है;

कहाँ दीवारों के 
पास भी  दिल होते हैं

कहाँ पे पेड़ 
भी करते है अपनी मनमानी ;

कैसे जानवर इंसान 
बने फिरते हैं;

कैसे कोई टुकड़ो में जी लेता है;

किसका चेहरा छुपा नहीं 
है नकाब के पीछे;

हवा आ के 
बतलाओ कभी;

किस तरह 
रोज़ तुम ताजगी को लाती हो;
सुबह से कौन सा रिश्ता तुम्हारा;
राज़ क्या है जो 
बतलाते नहीं..

-शाहिद

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