शनिवार, 17 दिसंबर 2011

तुम वो तो नहीं हो?












तुम वो तो नहीं हो?

जिसे वो ढूंढते हुए
आया था यहाँ ?

"कहाँ है अब वो ?"
पूछा उसने ...

वो तो चला गया ;

दो महीने होने को आये

बिना किसी को कुछ बताये
वो अचानक एक दिन चला गया...

कुछ दिन पहले ही मुझे पता चला..

एक ख़त छोड़ गया था;

कह रहा था कि
तुम आओगी यहाँ;

हर रोज़ आता था यहाँ;

यही मुलाक़ात हुयी थी उस से;

उस दिन बहुत उदास था;

मुझसे घंटो तुम्हारी
बाते किया करता था;

ये एक ख़त
छोड़ गया है तुम्हारे नाम;

मैंने उस से कहा भी था
कि पता नहीं मै

ये तुम्हे दे भी पाऊंगा या नहीं ;

पर उसे पूरा यकीन था;

तुम्हे देख के लगता है
वो गलत नहीं था....

रविवार, 11 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

रात एक इश्तहार हो जैसे;
कोई पहले को प्यार हो जैसे...

दिल रह रह के क्यों धड़कता है;
दिल फिर बेकरार हो जैसे..

ज़िन्दगी अब भी क्यों नहीं फानी;
किसी का इंतज़ार हो जैसे..


बुधवार, 7 दिसंबर 2011

मुझसे नफरत भी नहीं कर पाता;
मै प्यार के भी काबिल नहीं उसके ...



...

जैसे मै किसी दुश्मन का किला हूँ कोई ;
जो मिलता है मुझे आग लगाकर छोड़ देता है..

मै कोई इजाद होने वाला हूँ नया जैसा ;
जो भी आता है मुझे आजमाकर छोड़ देता है...


हमारी किस्मत

मुझे
उम्मीदें पालने का शौक़ है;

झूटी उम्मीदें
जो कभी पूरी नहीं होती

वो
जो जीना मुश्किल बना देती हैं;

पर
इन्ही के भरोसे तो दुनिया कायम है

क्यों?

तुम नहीं पालते,
उम्मीदें;

अच्छे
हो तुम;

तुम्हे फर्क नहीं पड़ता नाः?

अच्छा है ,

कितना अजीब हैं ना

 हम दोनों की दुनिया
जो कभी एक सी थी,

आज अलग है
क्यों?

जवाब नहीं दोगे तुम?

रहने दो,


अच्छा नहीं है
तुम्हारे लिए;

तुम्हारी इमेज के लिए;

बुरा बनना
और बुरा होना

सिर्फ हमारी किस्मत में लिखा है....

गूंगा

सिर्फ इस वजह से
की मुंह में जुबान नही मेरे;

मै
बोल नहीं पाता
कुछ;

पर क्या जिनके पास जुबां है
वो बोलते हैं,

वो भी नहीं बोलते;

क्योंकि उनके पास सब है
पर सच कहने की हिम्मत नहीं;

इसलिए मै सोचता हूँ कि
मै गूंगा ही अच्छा हूँ ....

मंगलवार, 6 दिसंबर 2011

दुनिया बदल रही है..













कुछ खून जल रहा है;
कुछ बात चल रही है,

जिंदा तो नहीं हूँ  मैं;
पर सांस चल रही है..

गुस्से में कह गया था;
वो बात खल रही है..

कोई ज़लज़ला है आया;
साँसे मचल रही है..

दिल में है कुछ सन्नाटा;
धड़कन पिघल रही है..

खुशियाँ उधार है अब ;
उदासी भी पल रही है..

अँधेरा है अब आया;
दुनिया बदल रही है..


.....

तू है तो ज़माने को ज़रुरत नहीं मेरी;
अब तक तो उसको भी आदत नहीं मेरी..

कुछ उसूल हैं जो मै भी तेरे साथ नहीं हूँ;
घरों में आग लगाने की चाहत नहीं मेरी..


कविता,

मेरी किताब के खाली पन्ने
मेरी कलम की नीली स्याही
मेरी मेज़ का टूटा कोना;

एक कहानी को याद करते हैं,

मेरे मोबाइल के पुराने मेसेज;
मेरे इ-मेल के पुराने चिठ्ठे;
मेरी डायरी की पुरानी कतरने;

उस जवानी को याद करते हैं..

मेरी हलक का सूखा हिस्सा;
मेरे दिल का रूठा किस्सा;
मेरी आँख की पलकों के हिस्से;

उस पानी को याद करते हैं...

सोमवार, 5 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

ऐसे ही कभी तू भी, आदतें बदल के देख;
रौशनी चाहता है तो, तू भी जल के देख....

सच का रास्ता अभी भी, है वीरान पड़ा हुआ;
न हो तुझको ये यकीन, तो तू भी चल के देख...

शिकवे शिकायतों का सिलसिला अभी भी है;
कभी प्यार की राहों में, तू भी टहल के देख..


रविवार, 4 दिसंबर 2011

तेरी आँखों में












तेरी आँखों में
अभी भी कुछ नज़र आता है;

वो पुरानी बात तो नहीं है
लेकिन

ये चमक याद कुछ दिलाती है,

वो हथेलियों में चाँद को लेकर आना,
उसमे चेहरे को छुपाना तेरा,

छोड़ कर मुझको अकेला तन्हा,
रात को लौट कर जाना तेरा,

वो शमा अब भी
तेरी आँख में जलती तो है,

तू कभी मोम सी इस
बात पे पिघलती तो है,

तुझको पाने के इरादे
किये थे जो उसने

वो तो अब फिर कहीं नहीं बाकी

फिर भी जाने क्यों
तेरी आँखों में उसको ,

अभी भी कुछ नज़र आता है...



शनिवार, 3 दिसंबर 2011

उस मोड़ पे जहाँ मै कमज़ोर पड़ जाता हूँ;
मेरा दोस्त मुझको क्यों वहां खींचता है...


ग़ज़ल,

तू आज  भी उसी शाम से लड़ता क्यों है;
ये बात सच है , तो इस बात पे बिगड़ता क्यों है..

जो छूट जाना चाहता है तुझसे हर बार;
उस को बार बार तू ऐसे पकड़ता क्यों है...

तेरी कौन सी बात है जो नहीं बदली;
फिर यूँ हर बात पे अकड़ता क्यों है..

जब पता है की ये मामला बस का नहीं तेरे;
तू उस मामले में बेवजह पड़ता क्यों है..


शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

तरफ किसके हूँ समझ नहीं आता;
दिल को कहता हूँ पर नहीं आता ...

सर में एक आईना सा घूमता है;
नज़र कुछ भी मगर नहीं आता..

उसी जानिब हर रोज़ मै निकलता हूँ;
न जाने क्यों मै घर नहीं आता..

जिस तरफ मेरी ज़रुरत हो उसे;
मै चाहकर भी उधर नहीं आता...

मेरा दिल गाँव में रहता है कहीं;
मै बुलाता हूँ तो शहर नहीं आता..

ज़ुबान से रोज़ निकलना चाहे;
ज़हर फिर भी ज़ुबान पर नहीं आता..

चाँद खिड़की से देखता है हमे;
जाने क्यों कभी अन्दर नहीं आता..

मै पुकारता हूँ उसे रात ख़तम होने तक;
वो ख्वाब फिर भी रात भर नहीं आता..

=====शाहिद

ग़ज़ल,

हाँ, उस से नफरत मगर अब उतनी तो नहीं है;
दिल दुखाने की आदत उसकी गयी भी नहीं है..

वो बात इतनी पुरानी नहीं की भूल जाए;
पर याद रखने वाली कोई नयी भी नहीं है....

ग़लत कहना उसको तो बहुत मुश्किल है मगर;
ये ज़रूर है कि वो बात कही से सही भी नहीं है...

हाँ न कहने से यही रहता है मकसद शायद;
कि मामला मेरी तरफ  से नहीं भी नहीं है...

दिल से दूर उसके कभी न रहे थे मगर;
अजब बात है कि दिल में अभी भी नहीं हैं..

सर पे एक छत कि तलाश थी "शाहिद";
पता चला कि पैरों तले ज़मीन भी नहीं है...

==="शाहिद"

....

रात पे कुछ यकीन हो उसको,

ये धीमी धुन
जो चल रही है यहाँ,

सुन के लगता है कि दिल
सिकुड़ गया हो उसका,

कुछ इरादे चाँद भी ले आता
है मगर ,

दूसरे पखवाड़े
में  न आना उसका
खल जाता है...

जैसे तैसे फिर भी उसका
दिल बहल जाता है;

रात फिर भी क्यों
गुनहगार नज़र आई उसे

ये बात आसन तो था
समझना मुझको;

पर ये कह पाना

खालीपन , सन्नाटे के लिए
रात को गुनहगार ठहराना
 तो ठीक नहीं ,

रात हर रोज़ उस से कहती है
दुखड़ा अपना,

पर उसे
रात पे अब थोडा भी यकीन नहीं ....

बुधवार, 23 नवंबर 2011

ग़ज़ल,

अजब सी दूरी दरम्यान में बन आई है;
न वो बुलाता है हमे, न हम जाते हैं...

जो भी मिलता है, दिल से लगा के रखते हैं;
न ख़ुशी जाती है वापस, न ग़म जाते हैं...

जो दहलीज बना रखी थी कभी हमने;
आज उसी के बाहर, मेरे कदम जाते हैं..

इसी आहट का कभी इंतज़ार होता था;
इसी आहट पे अब हम सहम जाते हैं...

दिलों में आग भी अब ज़रूरी है "शाहिद";
सर्द मौसम में जज़्बात भी जम जाते हैं...

मंगलवार, 22 नवंबर 2011

me kaisi aag hai "shahid".../..dil jala, ghar jala, chiraag jala...

....

तुम मुझसे छूट रहे हो
मुट्ठी से रेत की तरह
मै जितना जोर देता हूँ
तुम उतना दूर जाते हो...

कभी तुम आईने से कहते हो
सूरत बदल डालो;
कि जितना दिन ये ढलता है;
तुम उतना दूर जाते हो...

उजाला घर में मेरे
आता जाता है;
मुझसे जो भी मिलता है
मुझे समझाता जाता है ...

मुझको तकसीम कर देती
है मेरी तन्हाई,
मै जितना भीड़ में होता हूँ
तुम उतना दूर जाते हो...

सोमवार, 21 नवंबर 2011

Ghazal

कल जो आऊंगा घर तुम्हारे ,तो पहचान लेना;
धडकने  तेज़ हो जाएँ तो,हाथ थाम लेना....

जो मेरे चेहरे की उदासी चली जाए कहीं;
तो तुम इस बात का भी इलज़ाम लेना...


ग़ज़ल

फिर से एक रात बेगानी हुयी;
ज़िन्दगी यूँही आनी जानी हुई..

वो बात की वक़्त को थाम लेंगे;
आज कितनी बेमानी हुई..

अपनी तकदीर लिखने का इरादा अपना;
आज समझा की बदगुमानी हुई...

खुदा के नाम पे खुदा से पर्दा ;
मियां ये तो बेईमानी हुई...

तुम में कुछ बात ही ऐसी थी;
यूँ नहीं दुनिया ये दीवानी हुई...

शनिवार, 19 नवंबर 2011

नज़्म,

बहुत दिनों से तेरा नाम
काग़ज़ पे नहीं लिखा;

आज लिखता हूँ
तो एक
बात याद आती है,

वो तेरा सामने से गुज़र जाना,

फिर कहीं चुपके से नज़र आना,

कभी देखने पे,
हौले से मुस्काना ,

वो तेरा शर्माना,
वो तेरा घबराना,

आफतों का एक पहाड़
टूटा था कभी;

तेरा नाम लिख के मिटाया हमने...
दिल को खूब आजमाया हमने

फिर तेरा नाम मेरे पास ही रहा
मिटता रहा, धुंधला पड़ा;

आज फिर से
उसी रेत में चलते हुए ;

जाने क्यों फिर तेरा नाम नज़र आया..
जिसको हमने सुर्ख काग़ज़ पे दोहराया....




शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

अजनबी तुम

तुम हकीकत तो नहीं हो लेकिन,

इतना तो यकीन है मुझको;

कि कहीं दिल के गलियारों में
वो सुहानी शाम रहती है..

कहीं पत्ते भी सरसराते हैं,
बदन में सिहरन सी होती है;

यही लगता है कि नदी के उस पार;

अब भी छोटी सी परी रहती है..

वो झरना जो बहता है साफ़ पानी का;
उसकी भी अपनी एक कहानी है,

वो पत्थर जो उस झील में डूबा भी नहीं,

मुझसे कहता है कोई दास्ताँ सुनाओ तुम;
इतनी जल्दी मत अजनबी बन जाओ तुम.....

ग़ज़ल

मै जहाँ हूँ , वहाँ पे कोई नहीं;
एक सिरा रोज़ उधेड़ता हूँ की कोई राह मिले..

सब को अपने माल-ओ-असबाब की फिक्र है;
गया वो दौर जब लोग बेपरवाह मिले..

ज़रुरत भर का तो खुदा सबको देता है;
परेशां है लोग इस वास्ते की बेपनाह मिले..

शेर कहने से तो शायर का ये नहीं मकसद;
कि बस लोगों से वाह वाह मिले..

और क्या मुझको चाहिए "शाहिद";
के दिल में तेरे थोड़ी मुझको भी पनाह मिले...

-शाहिद

बुधवार, 16 नवंबर 2011

...

हम जो उलझे तो बारहा उलझे ;
दिल के मसले कभी सुलझे ही नहीं..

सबब उस बात का क्या रहा होगा;
ये सोचने में वक़्त भी ज़ाया होगा...

यही सोच के थकता रहा था दिल भी मगर
आज एक उबाल आ गया वाँ भी,

कुछ हादसे रोज़
होने के लिए होते है शायद

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

ग़ज़ल,

मुझसे बिछड़ के मेरी तरह वो भी अकेला;
जब भीड़ में रहता है, मुझे याद करता है...

अपने गुनाह अपने हैं , जो उसका है वो याद;
यही सोचता हूँ , कौन किसको बर्बाद करता है..

एक बार कहीं बैठ के मेरे सवालों के साथ;
वो भी अपने जवाबों को आज़ाद करता है..

ग़म तो मौसम की तरह आते जाते हैं;
हाँ, वो ज़रूर इसमें कुछ इमदाद* करता है..

-शाहिद
* इमदाद=(हेल्प, मदद)



...

जीने का नया रंग फिर दिखा गयी मुझे;
जिंदगी हर बार कुछ सिखा गयी मुझे...

मै जब भी भटका राह से तो थोड़ी देर बाद;
एक नया रास्ता फिर सुझा गयी मुझे...


मंगलवार, 1 नवंबर 2011

चाह

मुझसे मिलने की चाह न कर;
इस बात पे तू फिर आह न भर;

ये दुनिया है , वो झूठी है;
कुछ सच्चा है तो प्यार मेरा,
तेरी आँखों पे जो पर्दा है ,
उस से दिखता है क्या तुझको?

सच्ची बातों को ठुकरा कर;
सुख को पाने की चाह न कर,

तू दुनिया की परवाह न कर,
इस बात पे तू फिर आह न भर;

जो मेरा है वो क्या मेरा,
जो तेरा था वो छीन लिया;
अब मुझको फिर उम्मीद नहीं,
क्या वक़्त बदलेगा तुझको?

अंधेरों की, इस नगरी में 
तू सूरज की फिर चाह न कर,

खुद को अब तू गुमराह न कर,
इस बात पे तू फिर आह न भर;

-शाहिद

अँधेरी गलियों में

मुझको अँधेरी गलियों में 
कुछ दिन तो और भी चलना है;

जब तक साहस है देखूंगा,
जब तक हिम्मत है देखूंगा,

फिर छोड़ के ये, जग सारा 
तेरे रास्ते पे ही निकलना है;
मुझको अँधेरी गलियों में 
कुछ दिन तो और भी चलना है;

जब हंगामा थम जाएगा;
जब मन मेरा रम जाएगा;

उस दिन मै खुद से पूछुंगा;
कि मुझको कब फिर ढलना है;

मुझको अँधेरी गलियों में 
कुछ दिन तो और भी चलना है;

 -शाहिद

शुक्रवार, 21 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल,

बरसात इस बार, बहुत मुश्किल गुजरी है;
ज़िन्दगी फिर ग़मों में शामिल गुजरी है.

तेरी याद ही आई है, जब भी बैठे हैं;
कुछ इसी हाल में हर महफ़िल गुजरी है.

तुझको जब भी देखा, घायल ही हुए है;
तेरी हर अदा मुझपे तो कातिल गुजरी है.

मैंने हर बार उसे अजनबी समझ छोड़ दिया;
मेरे सामने हर बार जब मंजिल गुजरी है.

तुम उस हालत को कभी ना समझ पाओगे; 
तेरे जाने के बाद जो इस दिल गुजरी है.

-शाहिद

दस्तक

इस महीने 
बहुत याद आये हो तुम;

चाय की चुस्कियों में 
हर एक घूँट में 
तुमको पीना चाहा,

आँख बंद करके  
ख्वाबों में तुम्हे जीना चाहा

खुद से मजबूर होकर
खुद से दूरी रखी;

बहुत कोशिशों 
से तुम को भुलाना चाहा;

वो एक रात;
या एक दिन नहीं था 
जो था गुज़रा;

मेरी ज़िन्दगी की साँसों 
ने उसे दोहराना चाहा;

क्यों हर रात 
आ के मेरा घर उजाड़ देती है;

मेरे संभले हुए इस दिल को
फिसला देती है;

बहुत मसरूफ हूँ 
जहाँ के मसलो में मै;

ये सोच के जब भी मैंने
दिल को बहलाना चाहा;

तेरी यादों ने दस्तक दे 
के फिर आना चाहा.

-शाहिद

तू

तू हर्फ़-इ-नूर
तू एक स्याह रात भी है;
तुझसे रंज 
तुझसे शिकवा 
तुझसे शिकायत भी बहुत पर

तू ही एक दुनिया 
तू एक ख्वाब 
एक हसरत भी तू है;

तुझसे बेहतर कुछ भी नहीं 
मेरे पास शायद

इसलिए तुझ में खोना  
एक आदत सी हो गयी है;

मिल जायेंगे मुझको 
भी नए शेर नए मतलब

नयी ग़ज़ल तुम जैसी 
शायद मगर बन पाए न फिर मुझसे 

इस बात की ख़ुशी भी है 
तकलीफ भी बहुत

एक साँस को 
भी तुझसे छुटकारा नहीं मिलता;

जो खो गया एक बार
वो दोबारा नहीं मिलता;

-शाहिद

मंगलवार, 18 अक्तूबर 2011

तुम्हारे शहर..

आधी रात 
को जब नींद बगावत करे

तो तुम्हारे शहर 
आने को जी करता है;

सोचता हूँ,
कि कैसे खुद 
को धोखा देना सीखते है लोग;

ये हुनर आसान नहीं दिखता;

पर सुनना उन बातों को
जो शोर में  चुप हो  जाते हैं दिल के

जैसे सुनसान 
शहर उनको भी बहुत पसंद हो;

पर तुम्हारे शहर में तो 
बहुत शोर है;

फिर क्यों तुम्हारा शहर 
अच्छा लग गया मुझको;

आधी रात के बाद 
दिन नया नहीं होता;

तारीख बदल जाती है;

लोगो के जन्मदिन कि मुबारकें 
एक एक कर के 
यहाँ वहां से सुनाई देती हैं;
पर इस शोर कि वजह से 
नींद को कोई शिकायत नहीं;

नींद के एक हिस्से को
इस भगदड़ से प्यार है बल्कि;

फिर जब नींद शिकायत 
करती है कि 

उसकी वीरानियाँ कहाँ है;
तो तुम्हारे शहर आने को जी करता है..


-शाहिद

मंगलवार, 11 अक्तूबर 2011

अच्छा होता..

शाखों पे फूल खिल आये , 
मौसम भी कुछ बदल आया;

अफ़सोस इस बात का है मगर,

पिछली सर्दियों में,
कुछ दूर चल दिए होते 

तो अच्छा होता..

तूफ़ान भी थम गया है;
हलचल भी कम हो गयी;

अफ़सोस इस बात का है मगर,

पिछली बार किनारे पे,
तुम मिल गए होते 

तो अच्छा होता..

अँधेरा भी कम हो गया है;
रौशनी भी वापस आ गयी है;

अफ़सोस इस बात का है मगर,

पिछली चांदनी रात में ही ;
सितारे टूट गए होते तो अच्छा होता..

-शाहिद

नज़्म- हवा

हवा आ के
बतलाओ कभी ;

कि मुक़द्दर क्या है ,

क्या है तबियत;
हाल-ए-दिल क्या है,

हौसले क़ी चिड़िया 
उडती है कहाँ?

कहाँ लोग
ग़म में मुस्कुराते हैं.

किस शहर में इंसान 
परेशान नहीं;

और कहाँ मिलती है 
ज़िन्दगी जो आज़ाद रहे;

किसने ख्यालों को
बेड़ियों में क़ैद किया;

कौन नशे में 
झूट बोलता है;

और किसका सच है 
जो आसान रहा है उसपे 

हवा आ के
बतलाओ कभी;

ज़ज्बात क्या है
दर्द क्या है ,
सितम क्या है;

ज़िन्दगी क्या है;
गर ये सच है 
तो भरम क्यों है

लोग गर भूल जाते है
तो आँख नम क्यों हो;

हवा आ के बतलाओ कभी ;

जीने के मायने क्या है;
फासले क्या है,
मुश्किलें क्या है;
हवा आ के 
बतलाओ कभी;

कहाँ पे लोग 
आसान राह चुन सकते है;

कहाँ दीवारों के 
पास भी  दिल होते हैं

कहाँ पे पेड़ 
भी करते है अपनी मनमानी ;

कैसे जानवर इंसान 
बने फिरते हैं;

कैसे कोई टुकड़ो में जी लेता है;

किसका चेहरा छुपा नहीं 
है नकाब के पीछे;

हवा आ के 
बतलाओ कभी;

किस तरह 
रोज़ तुम ताजगी को लाती हो;
सुबह से कौन सा रिश्ता तुम्हारा;
राज़ क्या है जो 
बतलाते नहीं..

-शाहिद

शेर

जो बन सको न तस्वीर, तो आईना बनो;
एक नज़र काफी है ,देखने दिखाने को..


ग़ज़ल

दिन हर रोज़ क्यों एक सा ही रहता है;
कैसा दरिया है जो सूखता है और न बहता है...

उसकी आँखें पढने पे ही होगा दिल का हाल मालूम;
अब न वो कुछ कहता है,और न चुप रहता है..

खून दिल का भी सफ़ेद पड़ गया होगा;
जब लहूँ अश्क बन के यूँ आँख से बहता है..



रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल

फिर रात चाँद आया , मगर तुम नहीं आये;
सावन भी लौट आया, मगर तुम नहीं आये...
 
अरसे रहा था जिस ख्वाब, का इंतजार मुझको;
वो ख्वाब तो पूरा आया , मगर तुम नहीं आये...

अब न वो शहर रहा, न वो लोग "शाहिद";
वक़्त सारा गुज़र तो आया, मगर तुम नहीं आये...

मै मील के आखिरी पत्थर से भी पूछने निकला;
वो बोला लोग तो सब आये, मगर तुम नहीं आये..

तुम्हे दोस्तों में गिनूं की, करूं दुश्मनों में शरीक;
मेरे मरने पे तो सब आये, मगर तुम नहीं आये..

-शाहिद

ग़ज़ल

एक आरज़ू मेरे दिल से, निकाली न गयी;
सर पे मुश्किलें वो आई , कि टाली न गयी..

उसकी हर बात, मेरे दिल के पार हो ही गयी;
तीर जुबां से जो चलाये, वो खाली न गयीं.

इश्क एक आग का दरिया है, जिसे दूर से देखो;
जो फिसले है वहां उनसे ,हालत अपनी संभाली न गयी..
 
जो बर्बाद-इ-इश्क हैं, वो ही बताएँगे किस्सा अपना ;
जो दिल एक बार टूटा, हसरतें फिर नयी पाली न गयीं.

कितनी ही खुशियाँ खरीद लाये, जहान से तुम;
मगर न जाने क्यों , इस दिल से ये तंगहाली न गयी...


एक कहानी

मै लिखना चाहता हूँ

एक कहानी जिसके किरदार 
सच्चे हों ;

एक कहानी
जो हकीकत के पास तो हो;

मगर बुराइयों से दूर हो,
क्योंकि आजकल 
सच दिखाने का मतलब सिर्फ 
बुराई दिखाना रह गया है;

मै लिखना चाहता हूँ;

वो कहानी जिसका ख्याल
मुझे एक अरसे से है.

रविवार, 2 अक्तूबर 2011

..

मुझे शौक़-ए-ग़ज़ल तूने ही सिखाया था मगर;
अब भूलना जो चाहूं, तो भुलाने नहीं देता.

तेरे किस्से, तेरे वादे , तेरी यादें भी छोड़ दूं;
मै सोचता हूँ रोज़, तो  होने नहीं देता.


शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

ग़ज़ल,

रात जब अजनबी बन जाती है ,
नींद आती है, नींद जाती है.

मै छत पे रोज़ सजदे करता हूँ,
चांदनी जब भी मुस्कुराती है,

ज़िन्दगी जब कभी शिकायतें करती,
हसरतें दूरियां जताती है,


एक रात

एक रात
जिसकी तलाश थी,

एक रात ,
जो थी गुज़र गयी,

एक रात 
आई थी मीलों चल के,

एक रात ,
जो सुन के सिहर गयी.

एक रात,
की जिसकी नुमाइश थी,

एक रात,
जो सज के उजाड़ गयी,

एक रात,
जो हंगामा लौटा,

एक रात,
जो जिंदा थी, मर गयी..

नज़्म,

मेरे लफ़्ज़ों के ठहराव में

मेरी धडकनों में ,
मेरी आहों में ,

जहाँ कहीं,
भी थोड़ी जगह मिलती है,

तुम्हारी याद रुक जाती है,

तंज़ दिल का का भी 
जाने से पहले,

तूफ़ान लाता है,

डूबने से पहले जैसे 
कश्ती हिलकोरे मार रही हो,

फिर थम जाने पर ,
तुम्हारी याद के सिरहाने सो जाता है..


मै

मै नशा हूँ,

मै ज़हर हूँ 
घुल जाता हूँ रगों में 

मै उम्मीद हूँ,

मै आवाज़ हूँ ,
फ़ैल जाता हूँ फिजा में,

मै तकलीफ हूँ,
परेशानी हूँ,
दुःख हूँ,
ग़म का सागर हूँ,

मै धुआं हूँ,
छा जाता हूँ आसमान में,

मै अफ़सोस हूँ,
आदत हूँ,
परछाई हूँ,
इत्मिनान हूँ,

मै एक ग़लती हूँ,
जो हो जाती है ,अनजाने में,


..

चाँद  किस्मत है, और किस्मत में भी नहीं;
अजीब सवाल मिला, और जवाब कोई नहीं...

....

मुझे सोचोगे ,मेरे हाल पे पछताओगे;
लौट के जब भी ,मेरे घर को जो तुम आओगे..


ग़ज़ल,

तारों के शहर में , चांदनी की कमी है;
इंसान तो बहुत हैं, आदमी की कमी है.

इतनी चमक धमक कि, चौंधिया गयी आँखें;
इस शहर में तो बस, सादगी की कमी है.

खुदा हर मोड़ पे, मिल जाते हों जहाँ;
बन्दे तो उसके हैं, पर बंदगी की कमी है.

अँधेरा हर तरफ फैला है, कुछ नज़र नहीं आता;
सच को देखने में बस कुछ, रौशनी की कमी है.

हुआ है सब मुझे हासिल, पर इतना समझ लीजे;
दिल के उस कोने में बस, आप ही की कमी है..


नज़्म,

रात की गहरी कालिख 

उजले चाँद कुछ यूँ
देखती है जैसे, 

चाँद सिर्फ उसको जलाने
निकला हो,

अपनी बदनसीबी 
या उसकी खुशनसीबी समझो 

जो रात इंतज़ार करती है

की हर रोज़ चाँद निकले,

और जब अमावस की रातों में 
जब चाँद नहीं दिखता ;

रात भुला नहीं पाती ,

चाँद को, 
चाँद के उजाले को....

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

...ग़ज़ल,

उस रोज़ इस तरह से, मुझ से मिल के तू गया;
एक  आरज़ू तेरे नाम से, जग जाती है हर रोज़...

मै रात से हर रोज़, कहता हूँ कि छोड़ दे;
ये रात ऐसी है , मुझे बहकाती है हर रोज़..

मै उसे भूल भी जाता हूँ , हर रोज़ फिर भी क्यों;
उसकी याद ऐसी है जो, आ जाती है हर रोज़..


नज़्म,

तुम आज जितने अच्छे हो,
क्या कल भी उतने ही होगे?

ये सवाल बहुत बचकाना है;
ये तुमको समझ न आना है;
मै फिर भी पूछा करता हूँ,

तुम आज मेरे हो पास जितने ;
क्या कल भी उतने ही होगे?

मेरी आँखों में , मेरी नींदों में,
पीछा करता है अक्स तेरा;

मै जब भी देखा करता हूँ;
तस्वीर तुम्हारी सीने में,
हर बार मै पूछा करता हूँ;

तुम आज मेरे हो साथ जितने ;
क्या कल भी उतने ही होगे?

..

मै जो पागल पागल फिरता हूँ,
उसका अंदेशा किसको था;

वो नाम तुम्हारा लेता था,
कोई और नहीं वो मै ही था.


रविवार, 18 सितंबर 2011

दुआ

खोने को चंद दिन हैं,
जगने को चंद रातें ,

बारिश की कुछ हो बूँदें,
जो याद कुछ दिला दे,

चाहत का कैसा मौसम 
आता है और जाता है,

जीने की ख्वाहिशें कब,
मिटटी में कुछ मिला दे,

दिन चार ज़िन्दगी के ,
शिकवे शिकायतों के,

सब भूल जाने को,
आ दिल से दिल मिला दें,

कुछ दिन भटकते जाना,
मिल जाना फिर किसी दिन,

चेहरे की सिलवटों को,
खुश हो के फिर बुझा दें,

दो पल जिए थे खुद को,
फिर लौट आये वापस,

जो साथ आ गए थे,
उन सब को हम दुआ दें......

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

ग़ज़ल

अगरचे शौक़ मुझको भी बहुत है लेकिन,
कुछ मुकाम सबको हासिल नहीं होते...

कुछ कश्तियाँ डूब ही जाती हैं समंदर में,
सबके नसीब में यहाँ साहिल नहीं होते...
  
कुछ सज़ाएँ बेगुनाहों को भी मिल जाती है यहाँ,
सूली पे चढ़ने वाले सब कातिल नहीं होते...

गुरुवार, 25 अगस्त 2011

..........

जो मेरे ख्वाब जलते हैं,

कभी देखा है तुमने उन्हें,

जलते  हुए वे तुम्हारा नाम ले 
के पुकारते हैं...

परसों वो मेरे घर की 

खिड़की  से कूद कर भाग रहे थे,

बाहर  हलकी बारिश हो रही थी,

 चाँद जो मुंडेर से  झाँक रहा था ,

  उन्हें डांट कर अन्दर  ले  आया...

ग़ज़ल

सितमगर मेरे बस इतनी सी आहट दे जा ,
जाते जाते मुझे बस अपनी मुस्कराहट दे जा..

जो काँप जाते  थे जुबान पे नाम लाने से,
अपने होंठों की वो थरथराहट दे जा...

कोई अफवाह ही उड़ा दे कि  यकीन हो जाए
अपने लौटने कि   कोई सुगबुगाहट दे जा....

रश्क करता हूँ तेरी तकदीर से, मै क्या कहूं इतना ,
बना सके खुदा दोबारा तू ऐसी बनावट दे जा .. 

 जो न हो  इरादा नज़र मिलाने का फिर तो ,
सामने फिर किसी चिलमन की रुकावट दे जा..   


मंगलवार, 23 अगस्त 2011

ग़ज़ल

न ख़त्म करो तलाश , मंजिलें और भी हैं,
वो कारवां छूट गया तो क्या, काफिले और भी हैं,

मुश्किलों से टकराते रहो हर बार कह के,
जब तलक सामने तुम हो, हौसले और भी हैं,

एक के बाद दूसरा शुरू हो जाता है यहाँ,
जारी रखने को यहाँ सिलसिले और भी हैं

एक दिल से ही उलझ के न रह जाओ यहाँ,
हल करने को अभी मसले और भी हैं 

हर बार कोई चीज़ गलत नहीं होती ,
करने को ज़िन्दगी में फैसले और भी हैं,

एक तुम्हारे साथ ही नहीं हुआ है ये पहली बार,
सुनाने को अपनी दास्ताँ यहाँ, दिलजले और भी हैं.....

सोमवार, 22 अगस्त 2011

.....

तुम इतना क्यों याद आते हो?

रात के गलियारों में 
मद्धम रौशनी की तरह ,

जैसे उम्मीद को भी कोई 
रास्ता दिखा रहा हो,

हाँ , यही ठीक वजह है 
पेड़ों की टहनियों के सूख जाने की,

आने वाले सर्द मौसम में,
इन्ही को जलाकर सेंक लेंगे खुद को..
..

.....

तुम्हे सुनना चाहता था बहुत दिन से ,
पर तुम जो सुना रहे थे वो बाते नहीं,

बातें जो टेबल पे अचानक बैठे 
सोचते रहते हो,

बातें ,जो राह चलते 
मुझसे टकराते ,

तुम्हारी जुबां से आकर चली जाती हैं

मुझे मालूम है तुम पहले ऐसे 
नहीं हुआ करते थे,

पर पहले जैसा होना नामुमकिन तो नहीं....

ग़ज़ल

वो रास्ता पुकारता है मुझको बार-बार
दिल को न जाने कब से आये नहीं करार  

 साथी नहीं है कोई, न है कोई  हमसफ़र 
 तन्हाई का खंज़र है, सीने के आर पार

 चुभता हुआ धुआं है  आँखों में भर गया
 बेख़ौफ़ अश्क बहते है आंखों से जार जार

 उसकी बुराइयों का शिकवा करें भी क्यों
 जब जानते हैं अपना भी दामन है  दागदार 

  "शाहिद "हमे भी देख, हम औरों से हैं  अलग 
   रखते हैं, एक चेहरे में हम शख्श चार चार...

कैसे होंगे?

लम्हों में कुछ बदले होंगे 
तारों से कुछ धुंधले होंगे

दिखते होंगे , छुपते होंगे
मुड़ते होंगे, फिरते होंगे

मुझको ये मालूम नहीं है,
?दूर मुझसे वो कैसे होंगे?


पंछी होंगे, उड़ते होंगे,
बारिश की कुछ बूँदें होंगी ,


घर होगा, दीवारें होंगी,
कुछ गीले कुछ सूखे होंगे,

मुझको ये मालूम नहीं है,
दूर मुझसे वो कैसे होंगे?

बुधवार, 17 अगस्त 2011

मै तारों को पसंद तो हूँ लेकिन वो कहते हैं/
तुम मुझे क्यों दिन में दिखाई नहीं देते...


वो मुझको रोक के कह देता है मुझसे/
जो देखना चाहते हो ख्वाब, वो आसान नहीं लगता...


..........

क्यों मूड हर वक़्त एक सा ही रहता है..

अचानक से बस  मायूसी सी छा जाती है
बिना बात के बेवजह

लोग कहते है की क्या मिलेगा?

मै पूछता हूँ क्या चाहिए मुझे

एक  अदद ख्वाब
दो छोटे मकसद

थोड़ी सी मुस्कराहट

बांटने को कुछ तोहफे 
करने को कुछ वादे

 क्या इतना काफी नहीं है जीने के लिए 

..

.........

ख्वाबों की रहगुज़र में बहुत दूर जा बसे;



मंगलवार, 16 अगस्त 2011

.........

ज़िन्दगी का मकसद क्या है?

किसी की ख़ुशी ढूंढना ;
या किसी में ख़ुशी ढूंढना...

ज़िन्दगी का मकसद क्या है?

किसी की यादों में बह जाना 
या  किसी की यादों में रह जाना...

बुधवार, 10 अगस्त 2011

....

तुम मुझे देखते रहा करो यूँही /
कोई तो है जो मुझे ख्वाब से जगाता नहीं...

..........

खबर तो मुझको भी बहुत है ज़माने की मगर/
 तुम जो कहते हो तो, फिर मान लिया करते हैं....

 मुश्किलों में भी कभी,याद किया था तुमने/
 अब जो कहते हो कि, एहसान किया करते हैं....  


..........

अब मुझे जो भी चाहे कह लो/
मै तो वो ही हूँ जिसे याद किया करते थे..


..........

बहुत दिन हुए,

हाँ , बहुत दिन हुए,
 जब दिल से किसी से बात की,

किसी को गौर से सुने एक अरसा हुआ,

बहुत दिन  हुए,

हाँ , बहुत दिन हुए,
किसी को कुछ बताये हुए,

आजकल कोई मिलता भी कहाँ है,
जिसके पास वक़्त हो मुझे सुनने का,

बहुत  मुश्किल है,
किसी ऐसे का मिल पाना भी,

जो दो मिनट को  साथ बैठे,

बिना कोई  मतलब निकाले,
मेरी कुछ सुने,

 कुछ अपनी सुनाये,

 बिना किसी  उम्मीद के,
 सड़क पे आप के साथ  घूमे ....

 और मुस्कुरा के  अलविदा कह दे,
 फिर मिलने के लिए...

बहुत दिन हुए,

हाँ , बहुत दिन हुए,
जिंदगी से बात किये ....


..........

मै जो कहता हूँ,मेरी बातों का असर नहीं जाता;
लाख चाहते हुए भी, वो आँख से उतर नहीं जाता....

वहशत कुछ इस तरह से उस पे छाई है;
कि वो शाम को लौट के फिर घर नहीं जाता....

बहुत टूटा है मगर फिर भी जाने  क्यों? 
वो रोते रोते भी कभी बिखर  कर  नहीं  जाता ....

उसी का नाम दिल में छुपाये फिरता है;
पर उसका नाम कभी, उसकी जुबां पर नहीं जाता....

....

सोमवार, 8 अगस्त 2011

.........

दर्द का समंदर है,
अक्स मेरे अंदर है,

अब तो जो भी हसरत है,
ख्वाब ही में बाक़ी है....

मुस्कुराये जाते है,
सब भुलाए जाते हैं,

चाहतों का साहिल भी
ख्वाब ही में बाक़ी है... 

ज़िन्दगी सवालों में,
रात दिन ख्यालों में,

उलझनों की आदत भी,
आप ही में बाक़ी है...   


शनिवार, 6 अगस्त 2011

..........

चलते ही जा रहे हैं, मझदार में कहीं;
दिखते नहीं हैं कान , इस दीवार में कहीं...

थोडा वक़्त लगेगा हल होने में इसको;
मसला भी हल होता है इक बार में कहीं?

....

बुधवार, 3 अगस्त 2011

ग़ज़ल

मेरे ख्वाबों की अफसुर्दा महक थी और कुछ;
गुलों के खुशबू का अंजाम लिए फिरता हूँ...

चमन से लौट के चली जो गयी;
उसी बहार का इलज़ाम लिए फिरता हूँ...

पिछली आंधी में था जो टूट गया;
साथ अपने वो दिल-ए-नाकाम लिए फिरता हूँ...

जिन्होनें सीने से लगा रखा था मुझे ;
वो अपनी मुश्किलें तमाम लिए फिरता हूँ...

तुम्हारे साथ जो गुज़र थी गयी ;
साथ अपने वो आखिरी शाम लिए फिरता हूँ...

 
वो जो बरसता था आँखों से आंसू तो नहीं था;

ढेरो हथियार  तलाशे मगर ऐसा न मिला;
मारने के लिए तो बस तुम्हारी चुप्पी काफी है....!


हज़ार बार सितारों को देखा हमने 
हर बार वो कुछ और ही नज़र आये;

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

.........

नफरत ज़माने से मुझे है तो है;
तुम्हे फिर मुझसे मोहब्बत है तो है;


..........

शब् भर रही तलाश 
नींद जाती रही 

रात भर आपकी याद 
आती रही

एक अरसे से लगी थी
दिल में जो आग

चाँद की चांदनी 
ही बुझाती रही

 

सोमवार, 1 अगस्त 2011

.........

समझता नहीं है दिल, समझौता नहीं करता,
जो खो गया है वो, कभी लौटा नहीं करता..

जो सामने है उसको तो तुम हाथ में रख लो,
लोगों का इंतजार कभी मौका नहीं करता..




.........

आँख मिला के कहता है बन्दर नहीं हूँ मै 
वो ज़ात दूसरी थी , ये ज़ात दूसरी है

अड़सठ की उम्र में है किया मेट्रिक को पास
वो बात दूसरी थी, ये बात दूसरी है


शनिवार, 9 जुलाई 2011

ग़ज़ल

mujhe, sirf mujhe pata hai ki mera wajood kya hai;
ye mere dil ko pata hai usme maujood kya hai...

jisko khabar hi nahi hai kisi deen-o-imaan ki;
use phir kya pata islam kya aur yahood kya hai...

us saudagar pe kya beeti ye usi se poochho;
jiska mool bhi doob gaya to phir sood kya hai...

har baar badal leta hai jo apna ghar yahan;
us musafir se ab poochho ki ab maqsood kya hai...

बुधवार, 29 जून 2011

ग़ज़ल

जलता रहता है सीने में ,निकलता नहीं धुआं 
दिल का ये कोना छोड़ के, फिर जाएगा कहाँ

आज आ के मुझसे बोल दे, तू दिल की सारी बात,
दिल के ये सारे राज़, तू छुपायेगा कहाँ

तुझे देख के ही होता है मुझको हर दिन नसीब
दिल का मैं ये चैन अब फिर पाऊंगा कहाँ

हर रास्ता ले जाता है क्यों मुझको तेरी ओर
ये रास्ता भी छोड़ के मैं जाऊँगा कहाँ
   
.....

...............

वो क्या है 

जो मेरी आँखों से नज़र आता है

एक दुनिया सी दिखती है

नयी सी बिलकुल,
 उसमे झूट या फरेब नहीं है

मै वो दुनिया दिखा नहीं पाता तुम्हें

और तुम
अनदेखी चीज़ों पर कभी यकीन नहीं करते..      

बुधवार, 15 जून 2011

पन्ने

पुराने , कुछ नए पुराने 

हजारों पन्ने
लफ़्ज़ों से भरे हुए

अलग अलग रंगों की 
स्याही से लिखे

कुछ पानी की बूंदों से 
धुंधले पड़ गए 

कुछ वक़्त के साथ बासी 
हो गए पन्ने

सहेजता रहता हूँ मै 

पन्ने , कुछ मुड़े हुए से

कुछ टुकडो में बंटे हुए

अलग अलग खुशबू से 
भरे हुए 

सहेजता रहता हूँ मै  
बस यूँही 

मंगलवार, 7 जून 2011

ये शहर

ये शहर कभी तो हैरान करता है;
फिर दिल को कभी कभी परेशान करता है

साँसे रोक लेता हूँ मै जब कभी सड़क पे 
ये शहर मुझसे जान पहचान करता है

कभी थोड़ी सी जगह के लिए रास्तों में,
न जाने क्यों ये मुझको बेईमान  करता है

इतनी भीड़ है कि कोई नहीं देखता ,मै या तुम
ये शहर छुपने का काम आसान करता है

ऐसे वक़्त में जहाँ कोई किसी का नहीं होता;
शहर ये लाखों लोगों पे एहसान करता है

बदल देता है अन्दर तक सबकी रूहों को
शैतान को इंसान, इंसान को शैतान करता है

कभी ख्वाबों को पानी दे के सींचता है;
कभी उसी ज़मीन को रेगिस्तान करता है


....

जादू

हाँ , कुछ ऐसा ही तो होता है

जो दिखता तो है पर
यकीन करने का मन नहीं होता

भीड़ से किसी को बुला के 
जादूगर दिखाता है लोगों को

लोग हैरान होते हैं
तालियाँ बजाते हैं

तब भी हैरान होते हैं

मगर  कुछ अलग तरह से

पर इस बार ताली नहीं बजाते 

दबी जुबां में गालियाँ बकते हैं,

सामने से फिर भी मुस्कुरा के जवाब देते हैं


बुधवार, 1 जून 2011

..........

अब सब बदल गया है

कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा..

न वो पहले सी बारिश होती है
न वो पहले से फूल खिलते हैं

एक अजीब सी खलिश सी दिल में रहती है

अब सब कुछ बदल गया है

न वो पहले सी सुबह होती है
न वो पहले सी शाम होती है

एक अजीब सा नशा सा छाया रहता है

अब सब कुछ बदल गया है

कुछ भी पहले जैसा नहीं रहा

न अब रात को अचानक नींद टूट.ती है
न दिन को कभी बुरा सा लगता है..


मंगलवार, 10 मई 2011

कविता

तुम अपने दिल की बातें कभी तो कहते हो

मगर सिर्फ पूछने पर

खुद आकर नहीं कहते कि
तुम्हे पता है, आज ऐसा हुआ!

ऐसा कहने पे जो आँखों में चमक होती है
वो कहीं नहीं मिलती

जैसे कोई गहरी राज़ की बात
सुना रहे हो

पहले शायद तुम कहा करते थे

पर पहले तो तुम और भी बहुत कुछ किया करते थे 
जो अब नहीं करते 

तुमने बताया नहीं क्यों?

और हमने पूछा भी नहीं

क्योंकि आज कल तुम 
सिर्फ पूछने पे बताते हो
   
तुम जो खोये-खोये रहते हो

अच्छा नहीं लगता,

सोमवार, 9 मई 2011

ग़ज़ल

चलते फिरते मिलने के लिए कुछ बहाने ढूंढें
अपना ग़म भुलाने को कुछ दोस्त पुराने ढूंढें 

कुछ दूसरों की ग़लतियों से सीखा हमने 
सबक सीखने को कुछ और दीवाने ढूंढें

कभी जो पास थे तो ज़माने को ठुकराया हमने 
अब वापस खुद के लिए हम फिर से ज़माने ढूंढें 
 

ग़ज़ल

सदायें अब भी आती हैं कहीं दिल के कोनो से 
मै उन्हें रोक के कहता हूँ मुझे कुछ दूर चलना है

बुझा दिल है दबी आहें मेरी साँसें भी कहती हैं
बहुत मुश्किल सफ़र है और मुझे कुछ दूर चलना है

कभी रातें कभी कुछ दिन कभी शामें भी ढलती हैं
आज आई सुबह है और मुझे कुछ दूर चलना है

भुला के कब किसी को यहाँ कोई याद आया है
तुम्हे फिर भूल जाने को मुझे कुछ दूर चलना है
 
क्यों पसंद है मुझे कुछ

क्या सिर्फ इसलिए कि 
वो मुझे पसंद है हमेशा से

या फिर वो मुझे धीरे धीरे 
अपने पास खीचता चला गया
 

सही -ग़लत ........

हम समझ नहीं पाते कीमत कुछ बातों की

या शायद उस वक़्त हम वही करते हैं
जो सही लगता है

पर फिर क्यों कुछ देर बाद वही 
बात ग़लत लगने लगती है

क्यों कुछ फैसले हमेशा के लिए
सही नहीं हो सकते 

ऐसे जो पहले भी सही थे
आज भी सही लग रहे हों

और आगे भी उनपे कोई अफ़सोस न हो
     
कोई चीज़ जो आपसे जुड़ गयी हो
 वो चाह के भी  छूट नहीं सकती

आप उस को दूर छोड़ के आना 
चाहते हैं जहाँ से वो आप 
तक आने का रास्ता भूल जाए 

 पर वो ढूंढ ही लेती है रास्ता 
उन तमाम रुकावटों को पार करके
वो वापस आपकी चौखट पर आ जाती है

अबकी बार उसे वापस छोड़ना मुनासिब नहीं लगता 

आप दरवाज़ा खोल उसे अन्दर आने देते हैं

  
क्यों जो नहीं बोलता 
उसकी बात नहीं सुनी जाती

 

सोमवार, 2 मई 2011

हमसफ़र

हमसफ़र तू न सही
ख्वाब तो पूरे होंगे,

चमन में खिलेंगे फूल
फ़िज़ा महकेगी,

कोई तारा भी तो चमकेगा
गगन में फिर से ,

फिर से कोई ख्वाब
चरागों में रोशन होगा।

बदले मौसम में बहारों
के इशारें होंगे,

कुछ नए दोस्त भी
समंदर पे किनारे होंगे,

आइना फिर से
मुझे कह देगा
हकीकत मेरी ,

मैं अपनी कश्ती दरिया
में फिर से  उतारूंगा,

मेरा साहिल मुझे मिल
जाएगा
एक  न एक दिन मुझको

रविवार, 1 मई 2011

ग़ज़ल

बोलने के लिए कुछ बात बाक़ी है
दिन गुज़र गए हैं मगर रात बाकी है

बहुत कुछ दे गयी मुझे मगर ऐ ज़िन्दगी
तुझे देने को मेरे पास एक सौगात बाक़ी है

खुश्क मौसम से इतना खौफ मत खाओ
अभी आने को बहुत बरसात बाक़ी है

है सब कुछ ख़त्म हो गया फिर भी ऐ दिल 
रूह बाक़ी, जिस्म बाक़ी , मेरे जज़्बात बाक़ी हैं

 इन निगाहों को अपने महफूज़ रखो 
अभी कुछ होने को यहाँ वाकियात बाक़ी हैं


कहने के लिए चार दिन काफी है
जीने को

ज्यादा की ज़रुरत किसे है 

पर वो चार दिन भी कुछ ऐसे 
ही बीत गए हों 

तो मुश्किल है 


फासला

उन सब बातों पे जिनपे मै
बात करना चाहता हूँ 

वो तुम्हे पसंद नहीं

मै जब कोई बात पूछता हूँ 
वो सवाल तुम्हे पसंद तो आता है 

पर तुम उसका जवाब नहीं देते 
कुछ और कह देते हो 

तुम्हे लगता होगा की इस से बात 
ख़तम हो जाती है 

लेकिन ऐसा नहीं होता 

बल्कि एक फासला और बन जाता है 
  

मंगलवार, 26 अप्रैल 2011

धुआं

कैसे धुआं उठता है

कैसे 
जाने कैसे 

रह रह के उठता है मगर

कभी उस पार की
इंटें बनाने वाली चिमनी से 

कभी शाम को घर के चूल्हे से 

कभी खेतों में लगी आग से 

और कभी कभी दिल से भी उठता है
धुआं 

 न जाने कैसे

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

आखिर

ग़लत चीज़ें खींच लेती है अपनी ओर

क्योंकि उन्हें करने के लिए हिम्मत 
की दरकार होती है?
या वो बहुत आसान मालूम होती हैं?
 
या बस ऐसे 

कुछ सही करने में भी तो वक़्त लगता है

कितना कुछ चाहिए होता है
थोडा वक़्त और बहुत सारा ध्यान 

गौर करना पड़ता है बारीकियों पर

 लेकिन इस दरमयान 
पता ही नहीं चलता
कि आखिर हो क्या रहा है?

जुबां

मै उस जुबां में क्यों 
बोलना चाहता हूँ जो मुझे आती ही नहीं

सीखनी पड़ती है थोड़ी देर के लिए

मगर फिर भूल जाता हूँ

ज़रुरत मगर फिर भी आ ही जाती है

क्योंकि मै जो बातें 
ऐसे करता हूँ जैसे मुझे पसंद है 
 
तो वो लोगों को समझ नहीं आते

और कभी तो मुझे कुछ कहना ही नहीं पड़ता 
सुनना पड़ता है 

वही दोहराई गयी बात
नए तरीके से भी नहीं

बिलकुल वैसे ही पहले की तरह..

गुरुवार, 21 अप्रैल 2011

तुम मुझे शब् के अँधेरे में बुलाया न करो
रात भर मेरे खवाबों में यूँ आया न करो
 ....
लगा के आग क्यों कहते हो है नहीं जलना 
गर यही बात है ये आग लगाया न करो

कभी जो शाम ढले ,ज़िन्दगी उदास होगी
मगर कसम है मुझे ऐसे पाया न करो

.....

बुधवार, 20 अप्रैल 2011

दीवार

कभीं दीवार भी कह उठती है 
ऐसा मत बोलो

मेरे कान तो होते हैं 
पर वो ये सुन नहीं सकते

हज़ार बार सही  हैं
और एक बार नहीं

वो बीमार तो है पर कहता है 
बीमार नहीं

कुछ दाग लगे हैं 
मगर वो धुल नहीं सकते 


रविवार, 17 अप्रैल 2011

........................

अँधेरे कमरे 

में बैठे बैठे

चार बातों से लड़ बैठता हूँ

दो मुझसे रूठ के चली जाती हैं
दो मुझे मनाने लग जाती हैं


शनिवार, 16 अप्रैल 2011

पसंद नापसंद के वजूहात 
ढेरों हो सकते है कभी कभी 

और कभी एक वजह भी नहीं होती 

सिर्फ दिल में एक आवाज़ होती है 

जो पहले कभी दबी दबी सी थी 

अब अचानक वही चीज़ 
जोर जोर से चीखने लगती है 

.........

कागज़

बहता रहता हूँ मै

अपनी कुर्सी पे बैठे बैठे

मेरी मेज़ पे बिखरे कागज़ 
उड़ते हुए जाना चाहते हैं

जैसे आजाद होना चाहते हों

मै उन्हें मोड़ कर
रद्दी की टोकरी में ड़ाल देता हूँ

जैसे कुचल देता है तूफ़ान 
रास्ते में आने वाली हर चीज़ को

मेरी कलम के रंग उन कागजों से 
झाँक कर मुझे मुँह चिढाते हैं

हर घडी 
हर पल

जादू करते रहते हैं  

क्यों करते है?
तुम्हे कुछ पता है क्या?


जागना पहले मुझे कभी इतना 
बेहतर नहीं लगा
 
खुली आँखें थकी थकी सी 
अच्छी लगती हैं

जैसे इंतजार हो 
कभी न ख़तम होने वाला इंतज़ार
 

बुधवार, 13 अप्रैल 2011

लोरी

रात को जब नींद नहीं आती

अजीब अजीब सपने आते हैं

घने जंगल में 
किसी के चीखने के सपने 

धूल भरी आँधियों के सपने
तपते सूरज में जलने के सपने

फिर वो चले भी जाते हैं

जैसे मकसद सिर्फ मुझे डराना हो

 मुझे डर भी लगता है उस वक़्त
बहुत ज्यादा 

मगर फिर आंधियां रूक जाती 
चीखने का शोर थम जाता है

तपता सूरज ठन्डे चाँद में तब्दील हो जाता है

और फिर मुझे नींद आ जाती है...

भला ऐसी लोरी
मुझे रोज़ क्यों सुननी पड़ती है


जो बिलकुल भी मीठी नहीं लगती...
पता है आज बहुत बुरा दिन है

इतना बुरा कि क़यामत भी शरमा जाए

मगर बस फर्क इतना है कि आज का दिन हमेशा 
नहीं रहने वाला

कल फिर सुबह होगी 
 

कुछ नहीं

अब मै कुछ
नहीं कहूँगा 
कुछ भी नहीं 
एक लफ्ज़ भी नहीं निकालूँगा

क्योंकि अलफ़ाज़ परेशान करते हैं

छीन लेते चैन 
सुकून 
दिल का आराम 

न जाने क्यों रात भी आती है

हर वक़्त दिन होता तो
कमी नहीं महसूस होती  

तपता सूरज कुछ और सोचने नहीं देता
कुछ और कहने नहीं देता
मगर फिर ज़ुबान चुप कहाँ रह सकती है

मै कुछ नहीं कहना चाहता मगर फिर भी
कुछ लफ्ज़ फिसल कर उस किनारे चले जाते हैं

लेकिन अब मै कुछ नहीं कहूँगा
कुछ नहीं

...................