मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

धूप नहीं निकलती आजकल ,

सुनसान है
साल का आखिरी
समय

पूरे साल की धूप
ख़त्म हो गयी है ,

कुहरा अब अंदर भी है
और बाहर भी ,

कुछ समय बाद सूरज
निकले शायद।

तब तक हो सकता
है
सीलन आ जायेगी
दीवारों में ,

और कुछ कुछ दिल में
भी आ जाए इस ठण्ड में ,

धूप नहीं निकलती आजकल ,
दिल भी थोड़ी
गर्मी की तलाश करता है।

"एकला चलो रे "

खुद को पूरा करने के
लिए किसी और  होना
क्यों ज़रूरी है ?

क्या हम पूरे नहीं हैं
अपने आप में ?

ढूंढते रहते हैं सहारे हम

क्या ये सहारे हमें वाक़ई
दे सकते हैं
लम्बी दूरी तय करने
की ताकत ?

कितनी आसानी से
कह  देते हैं कि अकेले
हैं हम ,

और नहीं सामना कर सकते
ज़िंदगी कि मुश्किलों का

क्या मुश्किलें इतनी बड़ी हैं ?

अकेले सामने करें तो शायद
ढेर हो जायेंगे

पर ये टकराहट ही तो भरोसा
जगाती है  कि
अगर न टूटे तो ?

अगर नहीं बिखरे और लड़
पाये
तो क्या ये बहुत बड़ी जीत नहीं है ,

विश्वास तभी तो बढ़ता है
जब हम अकेले चलते है

टैगोर भी तो कहते थे ,
"एकला चलो रे "

तो बिना डरे चलते हैं
जीवन तो ऐसे भी नश्वर है ,

ख़त्म होना शुरुआत से
बुरा तो नहीं होगा।  



 


शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

ग़ज़ल,

तुझे देखूं तो , जादू सा असर होता है ,
कौन कहता है , इश्क़ आसान सफ़र होता है।

उसकी बातें मुझे फूल  सी लगती है ,
लोग कहते हैं , उसकी बातों में ज़हर होता है।

हम तो कबसे अपने हाथ उठाये हुए हैं दुआ में ,
जब से जाना है , कि दुआओं में असर होता है।

सबके चहरे से नक़ाब हट जाता है तब,
दिल जब किसी का , दर बदर होता है।


शेर,

१.
शिकायत बहुत है यूँ तो ज़माने से मुझ को ,
मगर इज़हार करके हम वक़्त ज़ाया नहीं करते।

२.
मेरी क़िस्मत चाहे टूटी फूटी हो ,
चाहे जैसी हो मेरे अख्तियार में रहे।

३.
कहाँ उलझे हुए हो ख्यालों में ,
ज़िंदगी नींद में नहीं चलती।  

ख्वाब

थोड़ी सी तेज़ रफ़्तार
भागने पर मजबूर कर देती है।

ज़िंदगी की रेस में पीछा
करना पड़ता है ख़्वाबों का ,

कुछ ख्वाब बस दिन भर
के लिए होते हैं ,

अगर वक़्त पे उनपे
ध्यान न दिया ,
तो
वो भीड़ में गुम हो जाते हैं।

नए ख्वाब पुरानो
से ज़यादा तेज़ दौड़ते हैं ,

पुराने कुछ अलसा से
जाते है , वक़्त के साथ ,

और फिर अपनी मौत मर जाते हैं।

जिस रफ़्तार से ख्वाब अपना
चेहरा बदलते हैं ,

हमे उनके पीछे टुकटुकी लगाये
ध्यान देना पड़ता है ,

दौड़ना पड़ता है।  

शेर,

१.
कुछ सामान बचा है दिल में मोहब्बत का ,
आग लगाने को चिंगारी भी बहुत है।
२.
उस को  देखे बिना भी चैन नहीं आता ,
और उसी से मुझको अदावत भी बहुत है।


ग़ज़ल,

सर चढ़ के बोलती है ज़िंदगी भी  ,
मौत से जब लोगों को डर  नहीं लगता।

शहर का सबसे खूबसूरत कोना भी ,
आराम तो देता है, पर घर नहीं लगता।

तुझसे बेहतर वो थे, ये पता तो नहीं ,
तू किसी हाल में भी कमतर नहीं लगता।

सारे इलज़ाम मेरे हिस्से आते है ,
दाग कोई भी हो, तुझ पर नहीं लगता।

तुझसे दूर रहने का ख्याल अच्छा है ,
पर तेरे पास रहने से बेहतर नहीं लगता।

जो रोग लग जाए इश्क़ का एक बार "शाहिद "
फिर कोई दूसरा , उम्र भर नहीं लगता।  

द्वंद

उस दिन अचानक ही सूझा
कि अब कुछ न कहेंगे ,

और बिना बात
ही शायद दूरियां बढ़ जाएँ।

पर ऐसा कहाँ होता है ,

एक पतंग की तरह ,
कुछ देर  तो मन भटकता है
इधर उधर ,

फिर वापस वहीँ लौट आता है
जिस डोर से बंधा होता है मन।

कल फिर से
शायद कोशिश करें

उस गली न जाने की ,

थोड़े दिन तो वो मोड़
याद नहीं आएगा ,

पर फिर ऐसा याद आएगा
कि जीना मुश्किल कर देगा।

टैगोर कहते हैं
कि खुद से जो लड़ाई है
वो ही बनाती है
आपका चरित्र ,

बात तो सही है ,

पर खुद से इस लड़ाई
में क्या हम अपने आप
का शोषण नहीं करते हैं ?

कहाँ तक उचित है
खुद को उस ओर
ले जाना जहाँ
आप जाना तो नहीं चाहते हैं ,

परन्तु उस ओर ही जाना
उचित हो उस समय ,

शंका ही शायद जीवन
कि सबसे बड़ी समस्या है ,

यदि हम समझ पाये
और खुद को यक़ीन दिला
पाएं

तो ये दिल और दिमाग
के बीच का  द्वंद कुछ कम हो जाए शायद।


...

उदास  दिन है , तमन्नाएँ उदास है मेरी ,
रुकी हुयी सी कहीं, लगता है सांस है मेरी,
फिर भी जाने क्यों ये आस है मेरी,

तुम भी आओगे और ये मौसम भी बदल जाएगा।

वो जो ख्याल था, वो सो गया है,
जो पहला ख्वाब था , वो खो गया है,
फिर भी याद है सख्श, वो जो गया है ,

वो भी आएगा और ये मौसम भी बदल जाएगा।

...

आग बरसेगी , शोला बरसेगा,
वक़्त आने पे वो भी बरसेगा।

एक अर्से सो जो नहीं है बरसा,
चोट खाने पे वो भी बरसेगा।

सबकी मुश्किलों में मज़ा लेता है,
खुद पे आएगी तो वो भी बरसेगा।




बुधवार, 27 नवंबर 2013

ग़ज़ल,

उनको करीने से सजा रखा है ,
ख्वाब जो सीने में दबा रखा है।

मंज़िल की खबर नहीं है अब कोई  ,
जाने उसको , हमने कहाँ रखा है।

हसरतें पाने कि अब नहीं कोई ,
हमने अबतक , बहुत गँवा रखा है।

दर्द से हमको अब नहीं शिकायत ,
हमने उसका नाम भी दवा रखा है।

कुरेदते क्या हो सीने में मेरे ,
अब इस राख में क्या रखा है।

सब कुछ लुटा दिया है हमने "शाहिद ",
अपने लिए कुछ, फलसफा बचा रखा है।



परिंदे

परिंदे आजकल बाहर शोर नहीं करते ,

पार्क  के किनारे वाला पेड़ कोई
काट के ले गया है।

वो आते हैं और घरोंदा
तलाश करके वापस लौट जाते है।

क्या कोई सोचता है वाक़ई
दूसरों के बारे में ,

लोग बस मशगूल हैं
जीने कि जद्दो जहद में ,

लेकिन ऐसा जीना भी क्या

जो दूसरों के जीने के
हक़ कि परवाह नहीं करता।

पुल

कभी कभी लगता है
ये पुल किसलिए बना  रहा हूँ ,

क्या ये पहुँचायेंगे मुझे उस पार

वहाँ जहाँ जाने से सफ़र की
थकान दूर हो जाती है,

क्या  होगा ऐसा कभी?

या फिर ये पुल कभी  पूरे 
ही नहीं  होंगे  ,

और मैं उन में से एक
अधूरे पुल के कोने पर खड़े होकर ,
उड़ जाऊँगा उस पार ,

वहाँ ,
जहाँ से कोई वापस नहीं आता।



मंगलवार, 12 नवंबर 2013

वक़्त क्या कुछ नहीं होता

वक़्त क्या  कुछ
नहीं होता  ,

जब अच्छा हो तो
नए और लाजवाब किस्सों
कहानियों का सबब बनता है,

जब बुरा हो तो कड़वी याद
बन कर ता-ऊम्र सबक
सिखाता रहता है,

मुश्किल हो
तो एक अच्छे दोस्त कि तरह
जीने के तरीके सिखाता है ,
देखने और समझने कि क़ूवत
पैदा करता है,

वक़्त जब गुज़रा हुआ
होता है, तो साये
की तरह साथ चलता है,

और आने वाला वक़्त सपने दिखता है,
ज़िंदगी में उम्मीद लाता है

एक वक़्त ही तो है
जो हमेशा साथ चलता है,

लोग पीछे छूट जाते हैं,
नए लोग शामिल हो जाते है,
पर वक़्त अपनी रफ़्तार से
कभी  तेज़ , कभी धीरे

हमारे सफ़र का गवाह बना रहता है,

सोमवार, 28 अक्तूबर 2013

ख्वाब के पौधे

ख्वाब देखने से भी ज्यादा ज़रूरी है
ख्वाब देखते रहना,

ख्वाब एक ऐसे पौधे की तरह
होते हैं
जिनकी सींचना पड़ता है
खून पसीने से,

और तब तक उन्हें
बचा के रखना पड़ता है
समाज के थपेड़ों से

जब तक वो खुद
खड़े होने लायक न बन जाएँ

और फिर
एक लम्बे इंतज़ार
के बाद ख्वाब एक फलदार
पेड़ बन जाते हैं।

गुरुवार, 12 सितंबर 2013

तुम्हारे पास

क्यों लगता है
फिर से खो जाऊँगा
वहीँ

जहाँ से लौट आया था मैं
बहुत पहले,

या कभी लौटा ही नहीं

तुमको देखता हूँ तो लगता है
कि  ठहर जाऊंगा अब

तुम्हारी  गोद में सर रख के सो जाऊंगा
फिर उसी नींद में जब

आँख डर के अचानक
नहीं खुलती,

जब जिंदगी का आज
कल के लिए  बेचैन नहीं रहता।

लगता है संभाल  पाओगी
तुम मुझे,

फिर भी नहीं छोड़ पाता
खुद को तुम्हारे पास





रविवार, 8 सितंबर 2013

सवाल -जवाब

ढेर सारे सवाल
और जवाब वही घिसे पिटे

नए दौर में जवाब
बदलने चाहिए

वैसे जो सूट करे
आपके मिजाज को,

न कि  दोहराए वो

वही राग जो अब कोई
सुनना  नहीं चाहता।



शनिवार, 31 अगस्त 2013

तुम्हारी नाक का तिल

तुम्हारी नाक का तिल
रोक लेता है मेरी धड़कन

ध्रुव तारे सा एक ही जगह
टिका हुआ

ढूढने वालों को
रास्ता दिखा रहा हो जैसे

जब देखा था पहली बार
तब से लेकर

हर बार पहली नज़र
वहीँ जाती है,

उसे देखता हूँ तो लगता
है कि तुम हो,

आकाश में खोई  हुई
ढूंढती हुई जाने क्या ?

शनिवार, 27 जुलाई 2013

अक्स

मै बस एक अक्स बन के रह गया हूँ,

एक परछाई मेरे पिछले
वजूद की,

जब मै चलता हूँ,
और हवा कानोँ के करीब
से गुज़रती है
तो मै हैरान नहीं होता,

न मैं ओस की बूंदों को
अपने हाथों में लेकर
पहले की तरह ढूंढता अपना
चेहरा उनमे,

ना  अब आहटों से वो
चहक रहती है
जो कभी हलकी सी
आवाज़  से बिखेर
देती थी चेहरे पे एक ख़ुशी,

रूह जैसे छीन ली जाए
कुछ उस तरह
मै मशीनी पुर्जे
की मानिंद एक सुर
में चला जाता हूँ,

रुकने का इंतज़ार है मुझे
जब ये सफ़र थम जाएगा,

और मुझे मेरा वजूद वापस
मिल जाएगा।



शनिवार, 20 जुलाई 2013

......

अब वो सियाही , कलम , दवात नहीं ,
मेरे हाथों में उसका हाथ नहीं।

जिसकी जानिब आवाज़ देते थे,
उसी आवाज़ का अब साथ नहीं।


....

हमने दिखाया हाथ तो अनजान हो गयी,
लगता था दो घड़ी का इम्तिहान हो गयी।

वो सारे शहर से लड़ाती रही ज़ुबान ,
जो हमने नाम पूछा , बेजुबान हो गयी।

बात मुश्किल बड़ी थी पर कुछ इस तरह,
वो मुस्कुरा के बोली कि आसान हो गयी।

उसका शहर भी मेरे शहर के करीब था,
जब रास्ता पूछा तो फिर पहचान हो गयी।

 

...

आइना शौक़ से देखो जो देखना चाहो ,
शक्ल अपनी नहीं पर पाओगे तुम,

कितने चेहरे छुपाये फिरते हो,
साफ़ कैसे नज़र आ जाओगे तुम,

गीत सुनो या कोई ग़ज़ल सुन लो,
सुनाओगे तो मर्सिया ही सुनाओगे तुम,

मुस्कुराने से किसको देते हो धोखा ,
दिल की तंगहाली ही दिखाओगे तुम।

रैट रेस

आजकल लिखना कम हो गया है,

टाइम लाइन देखा तो पता चला
कि
उतना भी नहीं लिखा
जितना पहले एक महीने में लिख लेते थे,

वक़्त बदल रहा है,

एहसास तब होता है जब
किनारे खड़े होकर देखने का वक़्त
मिल जाता है.

वरना ऐसे ही दौड़ते रहते है
रैट रेस कहते हैं जिसे अंग्रेज़ी में ,



ग़ज़ल,

ये शाम फ़कत दिल को जलाने के लिए है ,
ये जान भी अब घर को जाने के लिए है .

जो भी है दिल में प्यार बचा, मेरा कुछ नहीं,
ये सब भी बस  तुम  पे लुटाने के लिए है .

गर्दिश में सितारे रहेंगे उम्र भर नहीं,
वक़्त ये तुमको आज़माने के लिए है.

बरसेगा फलक से चाँद भी, सूरज भी सब्र कर,
क़यामत भी कोई चीज़ है, आने के लिए है.

बियाबान उजाड़ के परिंदों का कहते है,
जो आएगी तरक्की वो ज़माने के लिए है.


शनिवार, 22 जून 2013

आज़ादी

एक जूनून सवार है लोगों पर
एक दुसरे के पर काटने का,

कोई किसी को आज़ाद उड़ते नहीं देखना
चाहता,

आज़ादी चुभती है दिल में

जैसे हम छीन रहे है लोगों से कुछ
अपनी आज़ादी के लिए,


रविवार, 7 अप्रैल 2013

नफरत

नफरत किस बात पर होती है,

शायद इस बात पर की
तुम झूठ कह रहे हो,

या इस बात पर की
तुम वो नहीं कह रहे
जो तुम चाहते हो,

शायद इस बात पर भी
की तुम्हे सिर्फ खुद की परवाह है,

या इस बात पर
की तुम नहीं जानते
की कद्र क्या होती है,

नफरत किस बात पर होती है,
ये आसान है जानना,

और नहीं भी ,

शायद उस बात पर
नफरत होती है की
तुम बात नहीं करना चाहते,

या जब तुम बेवजह
बक बक करते जाते हो,

शायद उस बात पर जब
तुम्हे अपनी वजह बड़ी लगती है,

या उस बात पर जब तुम्हे
सब छोटे मालूम होते है।

नफरत किस बात पर होती है,
पता ही नहीं चलता कभी कभी ....

इंतज़ार

एक पल को
दिल को थाम लेना
तुम,

और इंतज़ार करना ,

जब हवा का रुख बदलेगा,

तब बादल आयेंगे
तुम्हारी तरफ

और खूब बरसेंगे

ऐसे
जैसे नहीं बरसे
पिछले कई सालों में,

तब उसके बाद
जो अगले दिन का सूरज
निकलेगा,

उस दिन आऊंगा मै ,

तुम्हे लेने ....!





रविवार, 31 मार्च 2013

चॉकलेट

तुम्हारी दी हुई चॉकलेट
दो दिन तक पड़ी रही वहीँ बिस्तर पर,

नहीं उठायी हमने ,

जाते आते देखते रहे उसे,

उसका आधा खुला रेपर
और उसके टुकड़े ,
याद दिलाते रहे ,
वो हिस्सा जो तुम्हारा था


तुम

तुम नज़र आई उस दिन
कुछ परेशान सी ,

बगल में बैठी जब
तुम रो पड़ी थी ,

सोचा अपना कन्धा दे दे
तुन्हें रोने को ,

और तुम्हारे आंसूं पोछे ,

पर जाने क्या था जो
रोक गया मुझे,

नहीं देखना चाहता तुम्हे
उदास इतना ,

ज़िन्दगी से इतनी मायूसी,

मुझे पता है तकलीफे है
पर किसकी ज़िन्दगी में नहीं है परेशानियाँ ,

तुम्हारी नयी तरह की होंगी,

पर तुम बहादुर बनो,

मुस्कुराओ और कह दो मुश्किलों से
की कहीं और जा बसे,

तुम्हारा दिल वो  जगह नहीं .


क्रिकेट

ज्यादा वक़्त तो नहीं हुआ ,
पर लगता है

जैसे एक अरसा बीत गया हो,

जब उस गली में हम क्रिकेट खेलते
हुए कब बड़े हो गए,

पता ही नहीं चला,

घर में कबाड़ में रखा बल्ला
अब भी याद करता है शायद

वो पुरानी गेंद
नज़र आ जाती है,

और याद आता है वो इतवार का दिन
जब दौड़ पड़ते थे ,

एक मैच से दुसरे मैच की तरफ ,

एक शॉट की तरह ही  लगा होगा,
जीवन का झटका हमे भी,

और हम हवा में आज भी उड़ रहे हैं ,

लपके जाने को,
या बाउंड्री क्रॉस करने को,


रविवार, 13 जनवरी 2013

यूँही

एक  साल जो  गुज़र गया ,

वैसे ही जैसे पिछला 
गुज़रा था ,
मेरी आँखों के सामने,

गुज़रे साल को याद 
करना आदत नहीं है मेरी ,

पर फिर भी याद 
आते हैं 
कुछ लम्हे जो सालों 
से बड़े थे कद में ,