शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

ग़ज़ल,

रात जब अजनबी बन जाती है ,
नींद आती है, नींद जाती है.

मै छत पे रोज़ सजदे करता हूँ,
चांदनी जब भी मुस्कुराती है,

ज़िन्दगी जब कभी शिकायतें करती,
हसरतें दूरियां जताती है,


एक रात

एक रात
जिसकी तलाश थी,

एक रात ,
जो थी गुज़र गयी,

एक रात 
आई थी मीलों चल के,

एक रात ,
जो सुन के सिहर गयी.

एक रात,
की जिसकी नुमाइश थी,

एक रात,
जो सज के उजाड़ गयी,

एक रात,
जो हंगामा लौटा,

एक रात,
जो जिंदा थी, मर गयी..

नज़्म,

मेरे लफ़्ज़ों के ठहराव में

मेरी धडकनों में ,
मेरी आहों में ,

जहाँ कहीं,
भी थोड़ी जगह मिलती है,

तुम्हारी याद रुक जाती है,

तंज़ दिल का का भी 
जाने से पहले,

तूफ़ान लाता है,

डूबने से पहले जैसे 
कश्ती हिलकोरे मार रही हो,

फिर थम जाने पर ,
तुम्हारी याद के सिरहाने सो जाता है..


मै

मै नशा हूँ,

मै ज़हर हूँ 
घुल जाता हूँ रगों में 

मै उम्मीद हूँ,

मै आवाज़ हूँ ,
फ़ैल जाता हूँ फिजा में,

मै तकलीफ हूँ,
परेशानी हूँ,
दुःख हूँ,
ग़म का सागर हूँ,

मै धुआं हूँ,
छा जाता हूँ आसमान में,

मै अफ़सोस हूँ,
आदत हूँ,
परछाई हूँ,
इत्मिनान हूँ,

मै एक ग़लती हूँ,
जो हो जाती है ,अनजाने में,


..

चाँद  किस्मत है, और किस्मत में भी नहीं;
अजीब सवाल मिला, और जवाब कोई नहीं...

....

मुझे सोचोगे ,मेरे हाल पे पछताओगे;
लौट के जब भी ,मेरे घर को जो तुम आओगे..


ग़ज़ल,

तारों के शहर में , चांदनी की कमी है;
इंसान तो बहुत हैं, आदमी की कमी है.

इतनी चमक धमक कि, चौंधिया गयी आँखें;
इस शहर में तो बस, सादगी की कमी है.

खुदा हर मोड़ पे, मिल जाते हों जहाँ;
बन्दे तो उसके हैं, पर बंदगी की कमी है.

अँधेरा हर तरफ फैला है, कुछ नज़र नहीं आता;
सच को देखने में बस कुछ, रौशनी की कमी है.

हुआ है सब मुझे हासिल, पर इतना समझ लीजे;
दिल के उस कोने में बस, आप ही की कमी है..


नज़्म,

रात की गहरी कालिख 

उजले चाँद कुछ यूँ
देखती है जैसे, 

चाँद सिर्फ उसको जलाने
निकला हो,

अपनी बदनसीबी 
या उसकी खुशनसीबी समझो 

जो रात इंतज़ार करती है

की हर रोज़ चाँद निकले,

और जब अमावस की रातों में 
जब चाँद नहीं दिखता ;

रात भुला नहीं पाती ,

चाँद को, 
चाँद के उजाले को....

गुरुवार, 29 सितंबर 2011

...ग़ज़ल,

उस रोज़ इस तरह से, मुझ से मिल के तू गया;
एक  आरज़ू तेरे नाम से, जग जाती है हर रोज़...

मै रात से हर रोज़, कहता हूँ कि छोड़ दे;
ये रात ऐसी है , मुझे बहकाती है हर रोज़..

मै उसे भूल भी जाता हूँ , हर रोज़ फिर भी क्यों;
उसकी याद ऐसी है जो, आ जाती है हर रोज़..


नज़्म,

तुम आज जितने अच्छे हो,
क्या कल भी उतने ही होगे?

ये सवाल बहुत बचकाना है;
ये तुमको समझ न आना है;
मै फिर भी पूछा करता हूँ,

तुम आज मेरे हो पास जितने ;
क्या कल भी उतने ही होगे?

मेरी आँखों में , मेरी नींदों में,
पीछा करता है अक्स तेरा;

मै जब भी देखा करता हूँ;
तस्वीर तुम्हारी सीने में,
हर बार मै पूछा करता हूँ;

तुम आज मेरे हो साथ जितने ;
क्या कल भी उतने ही होगे?

..

मै जो पागल पागल फिरता हूँ,
उसका अंदेशा किसको था;

वो नाम तुम्हारा लेता था,
कोई और नहीं वो मै ही था.


रविवार, 18 सितंबर 2011

दुआ

खोने को चंद दिन हैं,
जगने को चंद रातें ,

बारिश की कुछ हो बूँदें,
जो याद कुछ दिला दे,

चाहत का कैसा मौसम 
आता है और जाता है,

जीने की ख्वाहिशें कब,
मिटटी में कुछ मिला दे,

दिन चार ज़िन्दगी के ,
शिकवे शिकायतों के,

सब भूल जाने को,
आ दिल से दिल मिला दें,

कुछ दिन भटकते जाना,
मिल जाना फिर किसी दिन,

चेहरे की सिलवटों को,
खुश हो के फिर बुझा दें,

दो पल जिए थे खुद को,
फिर लौट आये वापस,

जो साथ आ गए थे,
उन सब को हम दुआ दें......

शुक्रवार, 9 सितंबर 2011

ग़ज़ल

अगरचे शौक़ मुझको भी बहुत है लेकिन,
कुछ मुकाम सबको हासिल नहीं होते...

कुछ कश्तियाँ डूब ही जाती हैं समंदर में,
सबके नसीब में यहाँ साहिल नहीं होते...
  
कुछ सज़ाएँ बेगुनाहों को भी मिल जाती है यहाँ,
सूली पे चढ़ने वाले सब कातिल नहीं होते...