शुक्रवार, 27 जुलाई 2012

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न जाने किसलिए
 और न जाने 
कितनी बार पीछा छुड़ाना चाहा 

तुम्हारी याद पीछा नहीं छोडती है मेरा 

ज़ख्मों को कुरेदती रहती है;

नासूर बन गए है 
वो सारे लम्हे जो मुझसे 

ऐसे जुड़े हैं कि 
अलग नहीं होते कभी;

जागते
सोते
उठते 
बैठते 

बस वो मुड़  के  
चले आते है;

 याद दिलाने 
खुशियों भरे पल 

जो अब के खालीपन का एहसास 
ऐसे मन में भर देता है 

जैसे एक ज़हर 
भर गया हो नसों में 

जलने लगता है 
मेरा पूरा बदन 

एक अजीब सा 
बुखार 

जो न जाने कब 
उतरेगा 

......

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