रविवार, 8 फ़रवरी 2015

...

दर्द सहना लगातार
और उम्मीद न खोना

ये दो चीज़ें रोज़ करनी होती हैं।

और तीसरी तलाश

ये सब कुछ ख़ामोशी से होता रहे
बैकग्राउंड म्यूजिक की तरह
तो खुश रहता है
आसपास का मौसम,

बस किसी दिन बरस पड़ता है,

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

आने वाले वक़्त

कभी कभी नज़र लग जाती है
खुद की भी

जो काले साये  खुद पे मंडराते हैं
वो चले जाते हैं वहां तक

जहाँ तक उन्हें नहीं जाना चाहिए।

फिर सारी रात जाग कर सोचा
करते हैं

की क्या हुआ होगा ?
ठीक तो होगा सब ?

ठीक ही होगा सब
दिल कहता है ,

और नहीं होगा तो ?

इस सवाल का जवाब पूछना
भी नहीं बनता।

लेकिन चलना तो होता है
हमेशा की तरह
आगे

बिना कुछ सोचे
यक़ीन के साथ,

सुबह की तलाश में

लेकिन क्या दो लोग
या हज़ारों लोग
यूँही एक दुसरे से अनजान चलने
के लिए बने हैं ?

क्यों दीवार के पार आप
देख  नहीं सकते

कि कोई लड़खड़ाकर गिरा तो नहीं ?
कोई आवाज़ तो नहीं लगा रहा ?

या फिर सब
एक तनहा सुरंग में चल रहे हैं

सिर्फ इस उम्मीद में की उस पार
उजाला होगा

उस पार रास्ता बंद  हुआ तो ?
ये कौन बताएगा इस वक़्त ?

इसका जवाब वक़्त के पास है
आने वाले वक़्त के।


..............

जब कोई पौधा
अपनी जड़ों से दूर
बेगानी आबो हवा में पनपता है

उसमे वो बात नहीं रहती
जो उसे वापस उसी ज़मीन पे जाने दे।

उसकी जड़ें मजबूत नहीं हो पाती
कितना भी खाद पानी डालने पर

नयी ज़मीन में
चाहें कितनी भी उर्वरा शक्ति हो

उस पौधे में फूल तो खिला पाती है
लेकिन उसमे खुशबू नहीं आती