बुधवार, 27 नवंबर 2013

ग़ज़ल,

उनको करीने से सजा रखा है ,
ख्वाब जो सीने में दबा रखा है।

मंज़िल की खबर नहीं है अब कोई  ,
जाने उसको , हमने कहाँ रखा है।

हसरतें पाने कि अब नहीं कोई ,
हमने अबतक , बहुत गँवा रखा है।

दर्द से हमको अब नहीं शिकायत ,
हमने उसका नाम भी दवा रखा है।

कुरेदते क्या हो सीने में मेरे ,
अब इस राख में क्या रखा है।

सब कुछ लुटा दिया है हमने "शाहिद ",
अपने लिए कुछ, फलसफा बचा रखा है।



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