रविवार, 1 अगस्त 2010

है बहुत कुछ






















अनकहा अनसुना
सा था कुछ;
कुछ ऐसा भी था जो कह के मै पछताया
भी था कुछ.

अजीब ख्वाहिश थी जो अधूरी हो के
भी पूरी थी;
अजीब मै था जो पूरा हो के भी अधूरा
सा था कुछ.

शहर छोटा था फिर भी बड़ा लगता
था मुझे
अब बड़े शहर में हूँ तो मै भी छोटा
हो गया हूँ कुछ

कई सालों से जो मिलता था आज अनजान
बन गया हूँ उसके लिए;
जो  आज मिला हूँ तो लगता है उस से 
पुराना रिश्ता है कुछ.

पीछे  मुड़ के देखता हू तो बहुत
कुछ खोया हुआ सा लगता है;
सामने देखने पे लगता है की मैंने पाया
है बहुत कुछ .

 # शाहिद

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