शनिवार, 7 अगस्त 2010

,तुम से है.

मेरी सुबह-ओ-शाम की इन्तहा तुम से है
इस बेजान जिस्म में कुछ बची जान, तुम से है

घर तो मेरा कब का उजाड़ गया है लेकिन
जो भी बचा खुचा है बियाबान, तुम से है

शहर वीरान है सड़के पड़ी है सूनी सूनी
ढूंढता फिर रहा हूँ वो ज़मीन जिसकी पहचान, तुम से है

कई दिनों से कुछ लोग आ के कह जाते है
वक़्त जो ले रहा है इम्तेहान उसका रिश्ता,तुम से है?

क्या बचा है जो खोने का ग़म मनाऊँ
 मुझे जो भी मिला उसका गिला बस ,तुम से है.

   # shahid

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