सोमवार, 3 जून 2019

ग़जल


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लिख तो रहा था ख्वाबों के परचे का मैं जवाब,
सवाल कुछ ऐसे थे कि जवाब ही नहीं।

जब मेरी नाउम्मीदी मिली उसकी उम्मीद से,
बरस पड़े वो ऐसे कि हिसाब ही नहीं।

चल तो पड़ा हूँ जानिबे ग़ैब की तरफ,
पर जल चुका हूँ इतना कि वो ताब ही नहीं।

फुर्सत मिली गुनाह की, गुनाह कर लिया,
अब कर रहा हूँ नेकी पर सवाब ही नहीं।

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