एक रात भरी ख़ामोशी से
कोई जाग गया बेहोशी से
थी बात कोई बेमानी सी
जो कह वो गया पुर्जोशी से
अलफ़ाज़ पलटता रह गया मै
कुछ समझ में मेरे आया ना
शायद आधी पूरी हो गयी थी
और आधी रही मदहोशी से
# शाहिद
शनिवार, 26 जून 2010
"हाँ, हो जाएगा"
तुम्हे ना कहना बहुत मुश्किल है
चाहे कितनी भी मुसीबतें उठानी पड़े
पर तुमसे कही बात पूरी करके ही
चैन पड़ता है
किसी भी तरह
एक अधूरा काम जो छूट गया हो
कई दिनों तक तंग करता है
जैसे कुछ उलझ गया हो कहीं
बिना छूटे कहीं जाना मुश्किल हो
कितना आसान होता है कह देना की
"हाँ, हो जाएगा"
पर होने और हो जाने के फर्क में
कभी कभी सालों गुज़र जाते हैं
# शाहिद
चाहे कितनी भी मुसीबतें उठानी पड़े
पर तुमसे कही बात पूरी करके ही
चैन पड़ता है
किसी भी तरह
एक अधूरा काम जो छूट गया हो
कई दिनों तक तंग करता है
जैसे कुछ उलझ गया हो कहीं
बिना छूटे कहीं जाना मुश्किल हो
कितना आसान होता है कह देना की
"हाँ, हो जाएगा"
पर होने और हो जाने के फर्क में
कभी कभी सालों गुज़र जाते हैं
# शाहिद
गुरुवार, 24 जून 2010
बातें कुछ अजीब बातें ...
बातें कुछ चुभने वाली बातें
एक कांटे की तरह
जो पाँव में चुभ
गया हो और रह रह के दर्द देता हो
कभी अनजाने में कही
कभी जान बूझ के सुनाई गयी
जैसे सुनना मजबूरी हो
अनसुनी कर भी दिया
तो दोहराई जाती है
चौराहों पर पोस्टर
बना के लगा दी जाती हैं
घूमती रहती है वो इस कान
से उस कान
कभी तीखी ज़बान में कभी
मीठी गोली की तरह
दी जाती है हर रोज़
बातें कुछ अजीब बातें
# शाहिद
एक कांटे की तरह
जो पाँव में चुभ
गया हो और रह रह के दर्द देता हो
कभी अनजाने में कही
कभी जान बूझ के सुनाई गयी
जैसे सुनना मजबूरी हो
अनसुनी कर भी दिया
तो दोहराई जाती है
चौराहों पर पोस्टर
बना के लगा दी जाती हैं
घूमती रहती है वो इस कान
से उस कान
कभी तीखी ज़बान में कभी
मीठी गोली की तरह
दी जाती है हर रोज़
बातें कुछ अजीब बातें
# शाहिद
बुधवार, 23 जून 2010
कुछ मोती ..
आज कुछ बात तो है
वरना इतना तो मेहरबान नहीं होता कोई
बिना मांगे वो दे गया इतना कुछ
जिसके लिए ना जाने कब से
बैठा था इंतज़ार में की कब
ना जाने कब ऐसा होगा
पर आज शायद कुछ खास दिन ही है
पर मै भी किसी का दिया
उधार नहीं रखता हूँ
मैंने आँखों से कुछ मोती
चुराकर उसकी हाथ में धर दिए
वरना इतना तो मेहरबान नहीं होता कोई
बिना मांगे वो दे गया इतना कुछ
जिसके लिए ना जाने कब से
बैठा था इंतज़ार में की कब
ना जाने कब ऐसा होगा
पर आज शायद कुछ खास दिन ही है
पर मै भी किसी का दिया
उधार नहीं रखता हूँ
मैंने आँखों से कुछ मोती
चुराकर उसकी हाथ में धर दिए
इतवार का दिन...
वो सुबह भी और दिनों जैसी ही थी
इतवार का दिन एक बड़े में शहर में
अलसाई हुई गलियों से होते हुए
मै भी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था
छुट्टी के इस दिन जाने कितनों के
किस्मत के इम्तेहान होते है
उसी में से एक मेरा भी था
भीड़ में रास्ता पूछते हुए लोगों का शोर
या किताब के पन्नो में परेशान चेहरे छुपे हुए
सब उसी तरफ भाग रहे थे जहाँ
मै जा रहा था
घड़ी के कांटे अभी बता रहे थे की थोडा वक़्त
बाकी है
मै वही सड़क के इस पार छांव में बैठ गया
सोचता हुआ की कल क्या हुआ और आज के बाद
क्या बदल जाएगा
तभी सामने से तुम आई
बहुत दिनों बाद मुझे लगा कभी कभी
कुछ अच्छा भी हो जाता है ....
इतवार का दिन एक बड़े में शहर में
अलसाई हुई गलियों से होते हुए
मै भी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था
छुट्टी के इस दिन जाने कितनों के
किस्मत के इम्तेहान होते है
उसी में से एक मेरा भी था
भीड़ में रास्ता पूछते हुए लोगों का शोर
या किताब के पन्नो में परेशान चेहरे छुपे हुए
सब उसी तरफ भाग रहे थे जहाँ
मै जा रहा था
घड़ी के कांटे अभी बता रहे थे की थोडा वक़्त
बाकी है
मै वही सड़क के इस पार छांव में बैठ गया
सोचता हुआ की कल क्या हुआ और आज के बाद
क्या बदल जाएगा
तभी सामने से तुम आई
बहुत दिनों बाद मुझे लगा कभी कभी
कुछ अच्छा भी हो जाता है ....
ग़ज़ल,
ना किसी गली, ना मोड़, ना शहर के लिए
दिल तड़पता भी है तो बस अपने घर के लिए
चाह के भी मै बाक़ी वक़्त कैसे काटूं
चाँद आता भी है आँगन में तो रात भर के लिए
दो पल के साथ से ही खुश हो लेता है दिल
कौन देता है साथ यहाँ उम्र भर के लिए
कल अचानक देखा था उन्हें सामने अपने
य़ू लगा वक़्त थम सा गया था पल भर के लिए
दिल तड़पता भी है तो बस अपने घर के लिए
चाह के भी मै बाक़ी वक़्त कैसे काटूं
चाँद आता भी है आँगन में तो रात भर के लिए
दो पल के साथ से ही खुश हो लेता है दिल
कौन देता है साथ यहाँ उम्र भर के लिए
कल अचानक देखा था उन्हें सामने अपने
य़ू लगा वक़्त थम सा गया था पल भर के लिए
मंगलवार, 1 जून 2010
कि कुछ कह दिया होता...!
मै आज अचानक उस से उसी मोड़ पे मिला
एक अरसे बाद
मुझे लगा वो मुझे पहचान रही थी
शायद वो कुछ बोले यही सोच रहा था मै और
वो भी शायद यही सोच रही थी
इसी इंतज़ार में दूरी कम होती गयी और वो
तिरछी नज़र से मुझे देखते हुए आगे बढ़ गयी
वापस आकर मै सोचता रहा
कि कुछ कह दिया होता
एक अरसे बाद
मुझे लगा वो मुझे पहचान रही थी
शायद वो कुछ बोले यही सोच रहा था मै और
वो भी शायद यही सोच रही थी
इसी इंतज़ार में दूरी कम होती गयी और वो
तिरछी नज़र से मुझे देखते हुए आगे बढ़ गयी
वापस आकर मै सोचता रहा
कि कुछ कह दिया होता
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