बुधवार, 23 जून 2010

इतवार का दिन...

वो सुबह भी और दिनों जैसी ही थी

इतवार का दिन एक बड़े में शहर में
अलसाई हुई गलियों से होते हुए

मै भी अपनी मंजिल की तरफ जा रहा था

छुट्टी के इस दिन जाने कितनों के
किस्मत के इम्तेहान होते है

उसी में से एक मेरा भी था

भीड़ में रास्ता पूछते हुए लोगों का शोर
या किताब के पन्नो में परेशान चेहरे छुपे हुए


सब उसी तरफ भाग रहे थे जहाँ
मै जा रहा था

घड़ी के कांटे अभी बता रहे थे की थोडा वक़्त
बाकी है
मै वही सड़क के इस पार छांव में बैठ गया

सोचता हुआ की कल क्या हुआ और आज के बाद
क्या बदल जाएगा

तभी सामने से तुम आई
बहुत दिनों बाद मुझे लगा कभी कभी
कुछ अच्छा भी हो जाता है ....

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