हम ख़याल
रविवार, 1 मई 2011
कहने के लिए चार दिन काफी है
जीने को
ज्यादा की ज़रुरत किसे है
पर वो चार दिन भी कुछ ऐसे
ही बीत गए हों
तो मुश्किल है
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