शनिवार, 27 जुलाई 2013

अक्स

मै बस एक अक्स बन के रह गया हूँ,

एक परछाई मेरे पिछले
वजूद की,

जब मै चलता हूँ,
और हवा कानोँ के करीब
से गुज़रती है
तो मै हैरान नहीं होता,

न मैं ओस की बूंदों को
अपने हाथों में लेकर
पहले की तरह ढूंढता अपना
चेहरा उनमे,

ना  अब आहटों से वो
चहक रहती है
जो कभी हलकी सी
आवाज़  से बिखेर
देती थी चेहरे पे एक ख़ुशी,

रूह जैसे छीन ली जाए
कुछ उस तरह
मै मशीनी पुर्जे
की मानिंद एक सुर
में चला जाता हूँ,

रुकने का इंतज़ार है मुझे
जब ये सफ़र थम जाएगा,

और मुझे मेरा वजूद वापस
मिल जाएगा।



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