मंगलवार, 10 दिसंबर 2013

"एकला चलो रे "

खुद को पूरा करने के
लिए किसी और  होना
क्यों ज़रूरी है ?

क्या हम पूरे नहीं हैं
अपने आप में ?

ढूंढते रहते हैं सहारे हम

क्या ये सहारे हमें वाक़ई
दे सकते हैं
लम्बी दूरी तय करने
की ताकत ?

कितनी आसानी से
कह  देते हैं कि अकेले
हैं हम ,

और नहीं सामना कर सकते
ज़िंदगी कि मुश्किलों का

क्या मुश्किलें इतनी बड़ी हैं ?

अकेले सामने करें तो शायद
ढेर हो जायेंगे

पर ये टकराहट ही तो भरोसा
जगाती है  कि
अगर न टूटे तो ?

अगर नहीं बिखरे और लड़
पाये
तो क्या ये बहुत बड़ी जीत नहीं है ,

विश्वास तभी तो बढ़ता है
जब हम अकेले चलते है

टैगोर भी तो कहते थे ,
"एकला चलो रे "

तो बिना डरे चलते हैं
जीवन तो ऐसे भी नश्वर है ,

ख़त्म होना शुरुआत से
बुरा तो नहीं होगा।  



 


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