शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

द्वंद

उस दिन अचानक ही सूझा
कि अब कुछ न कहेंगे ,

और बिना बात
ही शायद दूरियां बढ़ जाएँ।

पर ऐसा कहाँ होता है ,

एक पतंग की तरह ,
कुछ देर  तो मन भटकता है
इधर उधर ,

फिर वापस वहीँ लौट आता है
जिस डोर से बंधा होता है मन।

कल फिर से
शायद कोशिश करें

उस गली न जाने की ,

थोड़े दिन तो वो मोड़
याद नहीं आएगा ,

पर फिर ऐसा याद आएगा
कि जीना मुश्किल कर देगा।

टैगोर कहते हैं
कि खुद से जो लड़ाई है
वो ही बनाती है
आपका चरित्र ,

बात तो सही है ,

पर खुद से इस लड़ाई
में क्या हम अपने आप
का शोषण नहीं करते हैं ?

कहाँ तक उचित है
खुद को उस ओर
ले जाना जहाँ
आप जाना तो नहीं चाहते हैं ,

परन्तु उस ओर ही जाना
उचित हो उस समय ,

शंका ही शायद जीवन
कि सबसे बड़ी समस्या है ,

यदि हम समझ पाये
और खुद को यक़ीन दिला
पाएं

तो ये दिल और दिमाग
के बीच का  द्वंद कुछ कम हो जाए शायद।


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