उस दिन अचानक ही सूझा
कि अब कुछ न कहेंगे ,
और बिना बात
ही शायद दूरियां बढ़ जाएँ।
पर ऐसा कहाँ होता है ,
एक पतंग की तरह ,
कुछ देर तो मन भटकता है
इधर उधर ,
फिर वापस वहीँ लौट आता है
जिस डोर से बंधा होता है मन।
कल फिर से
शायद कोशिश करें
उस गली न जाने की ,
थोड़े दिन तो वो मोड़
याद नहीं आएगा ,
पर फिर ऐसा याद आएगा
कि जीना मुश्किल कर देगा।
टैगोर कहते हैं
कि खुद से जो लड़ाई है
वो ही बनाती है
आपका चरित्र ,
बात तो सही है ,
पर खुद से इस लड़ाई
में क्या हम अपने आप
का शोषण नहीं करते हैं ?
कहाँ तक उचित है
खुद को उस ओर
ले जाना जहाँ
आप जाना तो नहीं चाहते हैं ,
परन्तु उस ओर ही जाना
उचित हो उस समय ,
शंका ही शायद जीवन
कि सबसे बड़ी समस्या है ,
यदि हम समझ पाये
और खुद को यक़ीन दिला
पाएं
तो ये दिल और दिमाग
के बीच का द्वंद कुछ कम हो जाए शायद।
कि अब कुछ न कहेंगे ,
और बिना बात
ही शायद दूरियां बढ़ जाएँ।
पर ऐसा कहाँ होता है ,
एक पतंग की तरह ,
कुछ देर तो मन भटकता है
इधर उधर ,
फिर वापस वहीँ लौट आता है
जिस डोर से बंधा होता है मन।
कल फिर से
शायद कोशिश करें
उस गली न जाने की ,
थोड़े दिन तो वो मोड़
याद नहीं आएगा ,
पर फिर ऐसा याद आएगा
कि जीना मुश्किल कर देगा।
टैगोर कहते हैं
कि खुद से जो लड़ाई है
वो ही बनाती है
आपका चरित्र ,
बात तो सही है ,
पर खुद से इस लड़ाई
में क्या हम अपने आप
का शोषण नहीं करते हैं ?
कहाँ तक उचित है
खुद को उस ओर
ले जाना जहाँ
आप जाना तो नहीं चाहते हैं ,
परन्तु उस ओर ही जाना
उचित हो उस समय ,
शंका ही शायद जीवन
कि सबसे बड़ी समस्या है ,
यदि हम समझ पाये
और खुद को यक़ीन दिला
पाएं
तो ये दिल और दिमाग
के बीच का द्वंद कुछ कम हो जाए शायद।
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