शुक्रवार, 6 दिसंबर 2013

ग़ज़ल,

सर चढ़ के बोलती है ज़िंदगी भी  ,
मौत से जब लोगों को डर  नहीं लगता।

शहर का सबसे खूबसूरत कोना भी ,
आराम तो देता है, पर घर नहीं लगता।

तुझसे बेहतर वो थे, ये पता तो नहीं ,
तू किसी हाल में भी कमतर नहीं लगता।

सारे इलज़ाम मेरे हिस्से आते है ,
दाग कोई भी हो, तुझ पर नहीं लगता।

तुझसे दूर रहने का ख्याल अच्छा है ,
पर तेरे पास रहने से बेहतर नहीं लगता।

जो रोग लग जाए इश्क़ का एक बार "शाहिद "
फिर कोई दूसरा , उम्र भर नहीं लगता।  

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