सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

उसी रास्ते पर...

रास्ते में आते हुए
कुछ धान के खेत पड़ते है

रोज़ शाम को सूरज की तिरछी किरणे
उन पे ऐसे गिरती है मानो 

कोई रास्ता दिखा रहा हो उजाले का

एक छोटा बरसों पुराना पुल

झाड़ियों से ढाका हुआ

ऐसा लगता है की जाने कितने 
जाने वालों की कहानोयाँ छुपाये हुए

वहीँ खड़ा है

एक मज़ार जहाँ साल में एक बार
मेला लगता है

और बाकी वक़्त में उस में उगी घास
बकरियों को अंदर बुलाती है

पर लोहे का वो पुराना गेट

एक दीवार सा खड़ा हो जाता है उनके लिए

एक पीपल का पुराना पेड़
उस गंदे तालाब के पास

जो हर बरसात में साफ़ पानी से भर जाता है

हर आने जाने वालों को सुस्ताने को रोकता है

वहां हवा के बहने की आवाज़
पत्तों से होके गुज़रती जाती है

फिर कुछ घर दिखाई देने लगते है

बस्ती करीब मालूम होते ही
सूरज अँधेरे की चादर में छुप
जाता  है

और फिर कोई और चल निकलता है
उसी रास्ते पर

# शाहिद

कोई टिप्पणी नहीं: