बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

ठहराव

गुमशुदा हो गया हूँ मै
कोई पता ठिकाना नहीं

कहीं बीच में हूँ

जैसे दरमियान में बहुत कुछ चल रहा हो
पर ओर छोर का कुछ पता नहीं

कहाँ शुरू हुआ था मै
कहाँ खत्म होगा ये सब कुछ पता नहीं

बस बीच में मै लटका हुआ हूँ
एक कठपुतली की तरह

थोड़ी देर को जब कभी लगता है
की यहाँ रुक जाऊंगा,ठहर जाऊंगा

अगले ही पल एक झोंका
उस जगह से बहुत दूर फ़ेंक देता है

और फिर वहाँ  भी पता नहीं चलता

कुछ भी
कोई निशानी नहीं

फिर से एक जगह जो शुरू जाने की कब
की हुई

पर इंतज़ार में थी मेरे

किसी कविता की एक लाइन की तरह

जो पूरी करती है उसे

और जब वो एक लाइन भी अपने आप
में पूरी कविता होता है अपने लिए

पर दरअसल वो बीच में ही है
पूरी करने के लिए

उसका वजूद उतना ही है

दो सिरों के बीच का ठहराव जितना
बस इतना ही...


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