शुक्रवार, 30 सितंबर 2011

ग़ज़ल,

तारों के शहर में , चांदनी की कमी है;
इंसान तो बहुत हैं, आदमी की कमी है.

इतनी चमक धमक कि, चौंधिया गयी आँखें;
इस शहर में तो बस, सादगी की कमी है.

खुदा हर मोड़ पे, मिल जाते हों जहाँ;
बन्दे तो उसके हैं, पर बंदगी की कमी है.

अँधेरा हर तरफ फैला है, कुछ नज़र नहीं आता;
सच को देखने में बस कुछ, रौशनी की कमी है.

हुआ है सब मुझे हासिल, पर इतना समझ लीजे;
दिल के उस कोने में बस, आप ही की कमी है..


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