रविवार, 20 अगस्त 2017

आपस की बात

तुम कहो कि रूक जाओ,
तो मैं रूक जाता,
तुम कहो तो सही।

पर तुमने कहा,
कि मैं क्यों कहूँ,

हर बार मैं ही क्यों?

जानूँ,
पर मुझे पता कैसे चलेगा?
कि तुम चाहती हो
कि मैं रूक जाउँ,

क्या तुम मेरी आँखें
नहीं पढ़ सकते?
क्या तुम्हें सच में
नहीं दिखती ?
ये बेकरारी
ये दीवानापन

चले ही जाओ तुम।

या खुदा कोई
मुझे बताये
कि तुम्हारे
ऐसा कहने पर मैं कैसे चला जाउँ?

क्या तुम्हें लगता है
कि तुमसे दूर जाना
आसान है मेरे लिए?

तुम्हें पता भी है,
कि तुमसे दूर अकेले में
जब मेरी सिसकियाँ निकलती हैं
तो घर की दीवारें
भी रोती हैं मेरे साथ ।

तुम फरेबी हो
ऐसी झूठी बातें कह कर
मुझे बहला लेते हो,

तुम क्यों रोने लगे भला ?
तुम्हें तो आज़ादी मिल जाती है,
कि चलो बला टली,

जानू
तुमने वो शेर नहीं
सुना है
किसी शायर ने कहा था
"रोने से और इश्क में बेबाक हो गये /
धोये गये हैं इतने कि बस पाक हो गये "

मैं तो इस बाबत
रो लेता हूँ,

हा हा हा
ये शेर कब सीखे तुमने ?

जब मैं नहीं थी तो
किसको सुनाते थे?

तुम मुझे पहले क्यों नहीं
मिले,
कॉलेज में मेरा कोई ब्यावफ्रेंड
नहीं बना,

तुम बन जाते,

हम हाथों में हाथ डाले ,
पार्क में घूमते ,
सिनेमा देखने जाते,
रेस्तरां में खाना खाते,
और खूब प्यार करते ।

अब तो करते ही हैं
हम ये सब,

टूट कर प्यार
प्यार का इज़हार
कभी इकरार
कभी इन्कार
और फिर तक़रार
और फिर प्यार

और तब

तब मैं भी तो ढूँढ रहा था तुम्हें,
तुम कहीं नज़र नहीं आयी,

तुम कह देती
कि कहाँ हो तुम
चले आओ
तो मैं आ जाता,

पहाड़ो को पार करके
एक हाथ में चाँद
एक हाथ में गुलाब लेकर ,

पर पहचानती कैसे मुझे ?
कि मैं ही हूँ?

पहचान नहीं गयी थी
उस दिन तुम्हें हुमायूँ के मकबरे पर
कि तुम ही हो,

हाँ,
ठीक कहती हो ।

मैं देर कर देता हूँ
आने में ,

मैं देर कर देता हूँ
बताने में ,
जताने में ,
सुनाने में,

जोर से हंसने में ,
तुम्हें मनाने में ,

पर यक़ीन मानों
मैं आना चाहता हूँ ,

तुम्हारे बिना कहे,
बिन बुलाये,

सच में?
तो आ जाओ ना।

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