रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल

फिर रात चाँद आया , मगर तुम नहीं आये;
सावन भी लौट आया, मगर तुम नहीं आये...
 
अरसे रहा था जिस ख्वाब, का इंतजार मुझको;
वो ख्वाब तो पूरा आया , मगर तुम नहीं आये...

अब न वो शहर रहा, न वो लोग "शाहिद";
वक़्त सारा गुज़र तो आया, मगर तुम नहीं आये...

मै मील के आखिरी पत्थर से भी पूछने निकला;
वो बोला लोग तो सब आये, मगर तुम नहीं आये..

तुम्हे दोस्तों में गिनूं की, करूं दुश्मनों में शरीक;
मेरे मरने पे तो सब आये, मगर तुम नहीं आये..

-शाहिद

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