रविवार, 9 अक्तूबर 2011

ग़ज़ल

एक आरज़ू मेरे दिल से, निकाली न गयी;
सर पे मुश्किलें वो आई , कि टाली न गयी..

उसकी हर बात, मेरे दिल के पार हो ही गयी;
तीर जुबां से जो चलाये, वो खाली न गयीं.

इश्क एक आग का दरिया है, जिसे दूर से देखो;
जो फिसले है वहां उनसे ,हालत अपनी संभाली न गयी..
 
जो बर्बाद-इ-इश्क हैं, वो ही बताएँगे किस्सा अपना ;
जो दिल एक बार टूटा, हसरतें फिर नयी पाली न गयीं.

कितनी ही खुशियाँ खरीद लाये, जहान से तुम;
मगर न जाने क्यों , इस दिल से ये तंगहाली न गयी...


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