गुरुवार, 22 मार्च 2012

नया घर

बहुत रात हो जाती है,

जागते जागते
जागने की आदत पड़ गयी है शायद,


ख्वाब अधूरे पड़े
कैनवास पे ही रह जाते है,

रंग नहीं मिलते,

जिस दिन मिलते हैं,
उस दिन रंगने का वक़्त नहीं मिलता,


यादों के पौधे
मुरझा जाते हैं,

पानी नहीं मिलता,

जिस दिन मिलता है,
उस दिन बाढ़ आ जाती है,

पौधे डूब जाते हैं,

उम्मीदों के शीशे चटक जाते है,

बहुत गर्मी है
आज कल के वक़्त की हकीकत में,

नया घर ढूंढ रहा हूँ,


अपने लिए,


जहाँ कोई उम्मीद नहीं होगी,
और कोई याद भी नहीं,

और कोई ख्वाब भी नहीं होंगे,

रेगिस्तान के बीच की
एक सुनसान जगह...

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