शनिवार, 3 मार्च 2012

ग़ज़ल,

दर्द दिल से मेरे निकलता भी नहीं,
दिल भी ज़ालिम है कि संभलता भी नहीं ..

न जाने कितने खुर्शीद हुए गुरूब यहाँ,
एक वो आफताब है कि ढलता भी नहीं,,

जल गया दिल का मेरे हर कोना मगर,
जहाँ तुम थे वो कोना , जलता भी नहीं..

एक काँटा सा चुभ गया था उस दिन,
मेरे सीने से लिपटा है ,निकलता भी नहीं...

तेरे इंतज़ार में खुली रखी है आँखें हमने,
छोट जाने के दर से , मै आँख मसलता भी नहीं..

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