मै जहाँ हूँ , वहाँ पे कोई नहीं;
एक सिरा रोज़ उधेड़ता हूँ की कोई राह मिले..
सब को अपने माल-ओ-असबाब की फिक्र है;
गया वो दौर जब लोग बेपरवाह मिले..
ज़रुरत भर का तो खुदा सबको देता है;
परेशां है लोग इस वास्ते की बेपनाह मिले..
शेर कहने से तो शायर का ये नहीं मकसद;
कि बस लोगों से वाह वाह मिले..
और क्या मुझको चाहिए "शाहिद";
के दिल में तेरे थोड़ी मुझको भी पनाह मिले...
-शाहिद
एक सिरा रोज़ उधेड़ता हूँ की कोई राह मिले..
सब को अपने माल-ओ-असबाब की फिक्र है;
गया वो दौर जब लोग बेपरवाह मिले..
ज़रुरत भर का तो खुदा सबको देता है;
परेशां है लोग इस वास्ते की बेपनाह मिले..
शेर कहने से तो शायर का ये नहीं मकसद;
कि बस लोगों से वाह वाह मिले..
और क्या मुझको चाहिए "शाहिद";
के दिल में तेरे थोड़ी मुझको भी पनाह मिले...
-शाहिद
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