शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

....

रात पे कुछ यकीन हो उसको,

ये धीमी धुन
जो चल रही है यहाँ,

सुन के लगता है कि दिल
सिकुड़ गया हो उसका,

कुछ इरादे चाँद भी ले आता
है मगर ,

दूसरे पखवाड़े
में  न आना उसका
खल जाता है...

जैसे तैसे फिर भी उसका
दिल बहल जाता है;

रात फिर भी क्यों
गुनहगार नज़र आई उसे

ये बात आसन तो था
समझना मुझको;

पर ये कह पाना

खालीपन , सन्नाटे के लिए
रात को गुनहगार ठहराना
 तो ठीक नहीं ,

रात हर रोज़ उस से कहती है
दुखड़ा अपना,

पर उसे
रात पे अब थोडा भी यकीन नहीं ....

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