शनिवार, 3 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

तू आज  भी उसी शाम से लड़ता क्यों है;
ये बात सच है , तो इस बात पे बिगड़ता क्यों है..

जो छूट जाना चाहता है तुझसे हर बार;
उस को बार बार तू ऐसे पकड़ता क्यों है...

तेरी कौन सी बात है जो नहीं बदली;
फिर यूँ हर बात पे अकड़ता क्यों है..

जब पता है की ये मामला बस का नहीं तेरे;
तू उस मामले में बेवजह पड़ता क्यों है..


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