शुक्रवार, 2 दिसंबर 2011

ग़ज़ल,

तरफ किसके हूँ समझ नहीं आता;
दिल को कहता हूँ पर नहीं आता ...

सर में एक आईना सा घूमता है;
नज़र कुछ भी मगर नहीं आता..

उसी जानिब हर रोज़ मै निकलता हूँ;
न जाने क्यों मै घर नहीं आता..

जिस तरफ मेरी ज़रुरत हो उसे;
मै चाहकर भी उधर नहीं आता...

मेरा दिल गाँव में रहता है कहीं;
मै बुलाता हूँ तो शहर नहीं आता..

ज़ुबान से रोज़ निकलना चाहे;
ज़हर फिर भी ज़ुबान पर नहीं आता..

चाँद खिड़की से देखता है हमे;
जाने क्यों कभी अन्दर नहीं आता..

मै पुकारता हूँ उसे रात ख़तम होने तक;
वो ख्वाब फिर भी रात भर नहीं आता..

=====शाहिद

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