बुधवार, 13 अप्रैल 2011

कुछ नहीं

अब मै कुछ
नहीं कहूँगा 
कुछ भी नहीं 
एक लफ्ज़ भी नहीं निकालूँगा

क्योंकि अलफ़ाज़ परेशान करते हैं

छीन लेते चैन 
सुकून 
दिल का आराम 

न जाने क्यों रात भी आती है

हर वक़्त दिन होता तो
कमी नहीं महसूस होती  

तपता सूरज कुछ और सोचने नहीं देता
कुछ और कहने नहीं देता
मगर फिर ज़ुबान चुप कहाँ रह सकती है

मै कुछ नहीं कहना चाहता मगर फिर भी
कुछ लफ्ज़ फिसल कर उस किनारे चले जाते हैं

लेकिन अब मै कुछ नहीं कहूँगा
कुछ नहीं

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